रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।षष्ठोऽध्यायः – ‘आत्म संयम योग’ अध्याय छः- ‘सच्चा योग और कर्म एक है’
श्लोक (४)
मिल जाता जिसको आत्मज्ञान, इन्द्रिय रूपी उसके घर में,
आना जाना रुक जाता है, विषयों का,अरु उसके मन में ।
रह जाता चाव न लड़ने का, दुख से अथवा सुख से, अर्जुन,
साक्षात विषय सम्मुख आए, पर ध्यान न देता उसका मन ।
इन्द्रियाँ कर्मरत रहे मगर, जागे न फलेच्छा अन्तर में
व्यापार देह के चलें किन्तु वह उदासीन रहता मन में ।
‘हे केशव, उस योगी को ऐसी क्षमता कौन प्रदान करे?
भगवान कृष्ण से प्रश्न पूछते हैं, अर्जुन आश्चर्य भरे ।
श्रीकृष्ण विहँसते कहते हैं, ‘आश्चर्य तुम्हारी बातों पर,
अद्वैत जहाँ होता होता है कौन कहाँ किस पर निर्भर
जब भ्रान्ति रूप शैय्या पर गहरे सोया होता अज्ञानी,
दुष्स्वप्न जनम के और मरण के, देखा करता वह प्राणी’ ।
लेकिन जागे तो पाता है, वह आत्मरूप जो अमर रहा,
क्या जनम रहा, क्या मरण रहा, वह स्वप्न रहा सब व्यर्थ रहा ।
विश्वास जागता है उसका, रहता न उसे ‘देहाभिमान’,
है पार्थ साधना कर साधक होता जाता है उर्ध्वमान ।
सारे संकल्प त्याग देता, आसक्ति कर्म में रखे नहीं,
आसक्ति इन्द्रियो की विषयों से, कर लेता निश्शेष सभी ।
हो गया योग को प्राप्त व्यक्ति, तब ही ऐसा समझा जाता,
वह अखिल-चेतना से जुड़कर, उसका ही अवयव बन जाता ।
जो विषय-वासना को अपनी, सम्पूर्ण रूप से त्याग चुका,
मन में न दुबारा फिर उसके, इन्द्रिय भोगों का भाव जगा ।
कर्मो के फल की इच्छा भी, फिर उसके मन में नहीं उठी,
कहते हैं योगारूढ़ उसे, वह साधक होता सिद्ध यती
श्लोक (५)
यह उचित मनुष्य के लिए रहा, वह नित अपना उत्कर्ष करे,
मत मार्ग पतन का अपनाए, अपने को अवनत नहीं करे ।
इसलिए कि अपना मित्र स्वयं, होता है स्वयं शत्रु अपना,
उस पर अवलम्बित रहा स्वयं, ऊपर उठना, नीचे गिरना ।
संसार सिन्धु से वह अपना, उद्धार स्वयं कर सकता है,
यदि सावधान वह नहीं रहा, तो दल दल में धँस सकता है।
.अपने स्वभाव में, कर्मों में, ला सकता मन चाहा सुधार,
कर्मों के दोष हटाकर वह, जा सकता है जग जलधि पार ।
है अपना मित्र मनुष्य स्वयं, वह स्वयं शत्रु अपना होता,
उसके हाथों में है भविष्य जैसा चाहे वैसा गढ़ता ।
वह सार्वभौम आत्मा से अपनी व्यक्तिक आत्मा को जोड़े,
परमार्थ करे या स्वार्थ सिद्ध, श्रेयस पाए अथवा छोड़े ।
कारण विनाश का बनता है, तजता जो नर अभिमान नहीं,
तृष्णा की क्षुद्र लालसा की, अवरोधक झाड़ी सभी कहीं ।
जुड़कर वह अखिल आत्मा से, उन्नयन किया करता अपना,
यदि नहीं चेतता जीवन में, तो अनहित कर लेता अपना ।
उद्धार स्वयं करने पाता अपना अपने ही मन द्वारा,
अपने को दुर्गति में डाले, वह जो रहता मन से हारा ।
मन बद्धजीव का मित्र रहा, अनुकूल रहे तो मुक्त करे,
वह शत्रु रहा सबसे बढ़कर, जीवो को बन्धन युक्त करे । क्रमशः…