‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक ..32

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 32 वी कड़ी ..

तृतीयोऽध्यायः- ‘कर्म योग’

             ‘कर्म योग या कार्य की पध्दति’

श्लोक (१,२)

‘बुद्धि’ शब्द का अर्थ लगा अर्जुन को मानो ‘ज्ञान रहा,

भ्रमवश उसको मान’ज्ञान’ का ‘कर्म’ योग से अधिक लगा ।

सही रहा मन्तव्य कौन सा ऐसी लेकर जिज्ञासा,

वासुदेव से अर्जुन अपने मन की शंका बतलाता ।

अर्जुन उवाच :-

हे केशव जब कोई अपना, आत्मरूप पा जाता है,

तब कर्ता का और कर्म का, नहीं भेद रह पाता है ।

तो फिर भगवन मुझे, युद्ध के लिए आप क्यों कहते हैं ?

युद्ध भयंकर कर्म रहा, क्या इससे विस्मृत रहते हैं?

 

ज्ञान श्रेष्ठ है मान्य कर्म से, तो फिर मुझको हे भगवन,

पातक कर्म युद्ध के जैसा, करने क्यों कहते भगवन् ।

एक ओर तो कर्मों का, कर रहे निषेध जनार्दन हे,

और कर्म भीषण हिंसा का, चाहें करूँ जनार्दन हे?

 

कर्म मार्ग का बुद्धि मार्ग से, क्या ऊँचा सम्मान रहा?

आशय रहा आपका क्या प्रभु, मैं मतिमन्द नहीं समझा ।

सम्मिश्रित वचनों को सुनकर, भ्रमित हुई है मति मेरी,

नहीं सुनिश्चित होने पाती, है भगवन प्रज्ञा मेरी ।

 

जिसमें मेरा भला निहित, हो बात एक ऐसी कहिये,

श्रेयस्कर हो मार्ग मुझे जो, हे प्रभु उसको ही कहिये ।

आत्म बोध की अपनी इच्छा, क्या पूरी कर पायें हम?

या कर्तव्य मार्ग ही अपना, निर्धारित कर पायें हम?

 

वचन रहे संदिग्ध आपके, फिर कैसे अज्ञान मिटे?

भ्रम के बादल – जहाँ सघन हो, कैसे सूरज वहाँ दिखे?

क्या रोगी का रोग, बढ़ाने देता कोई वैद्य दवा?

अथवा साथ उड़ाकर नभ में, दूर फेकती कहीं हवा ।

 

‘अथवा रहे भटकता अन्धा, गलत पते पर पैर बढ़ा,

या बन्दर पर मदिरा पीने से, हो उसका नशा चढ़ा ।

सारी बातें सुनी ध्यान से, पर प्रभु बस घोटाला है,

जो उपदेश दिया प्रभु, उसने मुझको भ्रम में डाला है ।

 

हम तो रहे समर्पित अपने, तन मन जीवन वचनों से,

, क्या ऐसा व्यवहार किया जाता है, भगवन अपनों से?

शक्ति न बची ज्ञान अर्जन की, उल्टा मन हो गया विकल,

पहिले ही वह शान्त नहीं था, रहा दिग्भ्रमित वह चंचल ।

 

रही आपकी लीला क्या यह, नहीं समझ में आती है,

घड़ी परीक्षा की है अथवा नियति मुझे भरमाती है ।

गूढ अर्थ की शिक्षा को, मैं नहीं समझ पाता भगवन्,

ऐसा दें उपदेश समझ पाये, जिसको साधारण जन ।

 

रोग दूर हो, किन्तु दवा हो मीठी और स्वाद वाली,

सुगम, सरल हो, व्यावहारिक हो, बात गहन तत्व वाली ।

मिला आप जैसा गुरु मुझको, अहो भाग्य अपना समझें,

2 क्यों न कामना कामधेनू को, पाकर मैं पूरी कर लूँ।

 

चिन्तामणि जब हाथ लगी हो, फिर कैसी चिन्ता करना?

क्यों न बुझा लूँ प्यास, बहे जब आगे अमृत का झरना?

माँ का पीने दूध भला, क्या बच्चे को बन्धन कोई?

मनोकामना है जो प्रभु, कहता हूँ बस अब उसको ही |

 

इसी भाव से पूछ रहा हूँ इतना मुझको बतलायें,

उचित लोक कल्याण रहा क्या, जो जीवन में अपनायें ।

हितकारी हो, लोक और परलोक सुधर जाये जिससे,

निश्चित एक बात कौन, वह सिद्ध मनोरथ हो जिससे । क्रमशः…