‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक ..31

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 31 वी कड़ी ..

द्वितीयोऽध्यायः – ‘सांख्य-योग’

             ‘सांख्य सिद्धान्त और योग का अभ्यास’

श्लोक (६९) 

सब जीवों को जो रात्रि रही, योगी उसमें जागा करता,

इन्द्रिय-सुख रात समान रहे, वह आत्मरुप साधन करता ।

जग-जीव जागते हैं जिसमें, वह दिवस रुप सांसारिक सुख,

मुनि अन्तर्दृष्टा योगी को, वह निशा समान रहा सुख-दुख ।

 

अज्ञान व्याप्त जग जीवन में, सब आत्म स्वरुप न समझ सके,

व्यापार प्रेय इन्द्रिय सुख के, उनमें अज्ञानी मग्न रहे ।

यह मन मोहक सांसारिक सुख, अज्ञानी को दिन के समान,

पर योगी को यह रात रहा, जितना जो कुछ है नाशवान ।

 

परमात्मा ज्ञान स्वरुप रहा, वह रहा भास्कर जीवन का,

होता जो स्थित प्रज्ञ पार्थ, वह इसी भास्कर को लखता ।

अज्ञानी सांसारिक प्राणी सोया रह उसे न पाता है,

परमात्मा को पाने योगी, जागा रह, सत्य जगाता है ।

 

जिनको हो जाता तत्वज्ञान, वे नहीं रात में सोते हैं,

अज्ञानी जैसे नहीं कभी, वे दूर सत्य से होते है। रखते हैं,

अपनी आँख बन्द, वे दिन के उस उजियाले से,

जो भरमाये रहता जग को, अपने झूठे जग जाले से।

 

ज्ञानी जिनको है सत्य ज्ञान, पहिचान जिन्हें है अपने की,

उनको दिन की झूठी माया यह नहीं कभी भावित करती ।

इसलिए रात में वह जागा रहता है आत्मरुप ज्ञानी,

सतरुप विमुख तमलीन निशा में सोया रहता अज्ञानी ।

 

जो जीवमात्र की रही निशा, उसमें जागा करता योगी,

लेकिन योगी की निशा रही, जिसमें जागा करता भोगी

अज्ञान भाव जिसने जाना, वह उमसें सोया रहे पार्थ,

जागा वह रहा जगाए निशि में, अपने जीवन का यथार्थ ।

 

पाता है परम शान्ति ज्ञानी, अज्ञानी रहे अशान्त सदा,

जो आत्मा के सुख को तजकर, भोगों के सुख में लिप्त रहा ।

श्लोक (७०)

नदियाँ जिसमें जा समा रहीं, वह जलधि अविचलित अचल रहे,

उसके जैसा अविरल प्रवाह, इच्छाओं का जो सहज सहे ।

पाता है शान्ति पुरुष ऐसा, रहता जिसका अविचलित मन,

करना चाहे जो भोग-पूर्ति, नित व्याकुल रहता उसका मन ।

 

जो स्थित प्रज्ञ पुरुष होता, होता है वह सागर जैसा,

सागर परिपूर्ण रहा जल से, जो नित मर्यादा में रहता ।

जो अचल प्रतिष्ठापूर्ण रहा, नदियों से विचलित हुआ नहीं,

जितनी जो भी नदियाँ आई, उसमें विलीन हो गई सभी ।

 

नदियों के लिए न लालायित, उनके गिरने से क्षुब्ध नहीं,

उनका प्रवाह यदि रुका रहा, तो होता वह विक्षुब्ध नहीं।

आनन्द रुप जल राशि रही, तदरूप सभी उसमें मिलकर,

अस्तित्व अलग रख पाया क्या, कोई उसमें विलीन होकर?

 

उसके जैसा ज्ञानी-योगी रे रहे सर्वथा आप्तकाम,

कुछ नहीं चाह उसके मन में, वह योगी है प्रभु के समान ।

आनन्द अमित उसके मन में, वह अटल एक रस रहता,

प्रारब्ध योग जो दे जाता, वह उसे मुदित मन गहता है |

 

अनुकूल रहे, प्रतिकूल रहे, विषयों का वह संयोग रहा,

मन में उसके उनके कारण, हे पार्थ न कभी विकार जगा ।

नाना प्रकार के भोग उसे बस अनायास मिल जाते हैं,

जैसे सागर में जल के जल, दिशि दिशि से सहज समाते हैं।

 

परमात्म रुप में अचल रहे, पर कर्मों से वह अक्रिय नहीं,

स्वाभाविक सधते रहते हैं, जग जीवन के व्यापार सभी ।

मर्यादा में अपनी रहता, वह विचलित कभी न होता है,

बिन विकृति के नद-नदियों को सागर जिस भाँति संजोता है।

 

उद्वेग हर्ष या काम-क्रोध, आँधी-तूफान सहन करता,

ऊपर से उठती हैं लहरें, पर अन्तस्तल अविचल रहता ।

व्यवहार इन्द्रियों के होते रहते सन्सर्ग रहित, लेकिन,

ठहरा होता है, आत्मरुप में रे ऐसे योगी का मन ।

 

भोगों की चाह रही जिसको, उसका मन सदा अशान्त रहा,

ईधन पाकर नित अग्नि बढ़ी, जब अग्नि बढ़ी तो ताप बढ़ा ।

नित नई चाह मन में जागी, जब कोई एक हुई पूरी,

दिन-दिन अशान्ति बढ़ती जाती, प्रभु से बढ़ती जाती दूरी।

 

है यही विलक्षणता उसकी जो स्थित प्रज्ञ कहाता है,

वह शान्त रहे, गंभीर रहे, वह आप्तकाम हो जाता है ।

हों रिद्धि-सिद्धियाँ प्राप्त भले, अपना आनन्द न खोता है,

जो परमानन्द प्राप्त उसको, उससे न बड़ा कुछ होता है ।

 

वह लीन महासुख में रहकर, करता रहता है कार्य सभी,

पाने में नहीं बकाया कुछ, इस कारण कोई चाह नहीं ।

परवाह स्वर्ग के सुख की भी उसको न रही, देखो अर्जुन,

जो स्थितप्रज्ञ रहा उसका, निस्पृह, निष्काम रहा जीवन ।

श्लोक (७१)

इन्द्रिय सुख की इच्छा तजकर, जीवन यापन जो पुरुष करे,

तज मनोवासना, निर्मल मन, इच्छा ममता बिन जो उभरे ।

तज अहंकार मिथ्या अपना जो सरल मार्ग को अपनाता,

है पार्थ पुरुष निस्पृह ऐसा, सुख-शान्ति अपरिमित पा जाता ।

 

हो जाता उसको आत्मबोध, सन्तोष भाव मन में आता,

पाता है परमानन्द अगम, वह अटल बुद्धि का हो जाता ।

देहाभिमान को छोड़ा हुआ, वह विश्व रुप करता विचरण,

योगी का वर्तन विषयों का होता है, स्वार्थ रहित अर्जुन ।

 

जो पुरुष कामनायें अपनी, सम्पूर्ण रुप से तज देता,

जो तज देता अपना ममत्व, जो अहंकार को तज देता ।

जो तजकर मोह करे विचरण, वह प्राप्त शान्ति को होता है,

वह पूर्ण शान्ति होती अर्जुन, जिसको न कभी वह खोता है।

श्लोक (७२)

यह दिव्य धारणा है मन की, प्रभु को अर्पित होता जीवन,

मोहित न कभी फिर मन होता, चिन्मय होता प्राकृत जीवन ।

ब्राह्मी-स्थिति उपलब्ध हुई, उपलब्ध हुआ निर्वाण उसे,

हे पार्थ सिद्ध उसका जीवन, उपलब्ध कि भगवत् धाम उसे ।

 

वह पुरुष ब्रह्म को प्राप्त हुआ, उसने विमुक्त स्थिति पाई,

जिसमें न रही ममता न पृहा, जिसमें न अहम् की परछाई।

मोहित न हुआ ऐसा योगी, सार्थक उसने पुरुषार्थ किया,

वह ब्रह्मानंदी हुआ पार्थ, जब जिया और जब नहीं जिया ।

  | इति द्वितीयोऽध्यायः नाम-सांख्य योग।