‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक ..30

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 30वी कड़ी ..

द्वितीयोऽध्यायः – ‘सांख्य-योग’

             ‘सांख्य सिद्धान्त और योग का अभ्यास’

श्लोक (६५)

रे कर्मयोग के साधन से, हो जाता अन्तःकरण शुद्ध,

सात्विक प्रसन्नता भर जाती, मन मानो हो जाता प्रबुद्ध ।

हो जाता तब दुख का अभाव, हो जाती अटल बुद्धि अर्जुन,

बस एक सच्चिदानंद ब्रह्म से, अलग नहीं होता फिर मन ।

 

मन शान्ति पूर्ण जिसका उसको, क्या सांसारिक दुख व्याप सके?

अमृत का झरना जहाँ बहे क्या हृदय वहां फिर प्यास सहे?

हो अन्तःकरण प्रसन्न वहाँ क्या चिन्ता कोई ठहरेगी?

नित एक लहर आनन्द भाव की, ओर छोर बस लहरेगी।

 

दुख सारे उसके मिट जाते, जिस पर यह भगवत्कृपा हुई,

आल्हादित चित्त रहे उसका, मन की सब चिन्ता व्यथा गई ।

इसमें कोई सन्देह न कर, सुस्थिर होती प्रज्ञा उसकी,

जब सभी चेतना अन्तस की, आत्मा की ओर सतत बहती ।

 

जब वायु नहीं होती चंचल, दीपक की ज्योति अकम्प जले,

वह आत्मरुप में समाधिस्थ, जिसकी सुस्थिर हो बुद्धि रहे ।

श्लोक (६६)

जो मन को जीत नहीं पाया, जो नहीं इन्द्रियाँ जीत सका,

उसकी मति अस्थिर रही सदा, उससे न बुद्धि का योग सधा ।

निश्चयात्मक बुद्धि न हो पाई, तो मन की शान्ति मिलेगी क्या?

मन में हो जिसके शान्ति नहीं, उसको क्या सुख मिल सके भला?

 

ऐसे अयुक्त जन के मन में, रहती न शान्ति, रहती हलचल,

रहती न भावना जब मन में, घट जाता है सब मन का बल ।

हो क्षीण मनोबल जिसका, वह क्या बुद्धि योग को समझेगा?

विषयों में फँसा रहेगा बस, वह नहीं कभी भी उबरेगा।

 

पापी से रहता दूर सदा, जिस तरह मोक्ष मानो अर्जुन,

सुख कभी झाँकता नहीं, वहाँ बसती न शान्ति हो जिसके मन।

मन पर न नियन्त्रण रखना ही, बनता जग के दुख का कारण,

क्या बीज आग का भुना हुआ, करने पाता अंकुर धारण?

 

जो पुरुष अयुक्त रहा उसकी निश्चल न बुद्धि हो पाती है,

वह रहा भावना रहित उसे, मन की न शान्ति मिल पाती है।

मिलने पाता सुख उसे नहीं, वह भूला भटका रहता है,

उस उड़ते पत्ते सा समझो, जो साथ हवा के बहता है ।

 

जो बुद्धियोग से युक्त नहीं, वश में न चित्त उसके होता,

रहती न बुद्धि सुस्थिर उसकी, वह शक्ति सभी मन की खोता ।

सुस्थिर न बुद्धि जिसकी वह जन, मन की न शान्ति पाने पाये,

मन की न शान्ति जिसने पाई, उसको सुख कैसे मिल पाये?

श्लोक (६७)

इन्द्रिय भोगों की लिप्सा से, मन जिस इन्द्रिय के साथ जुड़े,

वह इन्द्रिय हरण करे मन का, अरु बुद्धि उसी के साथ बहे ।

ज्यों तेज वायु जल नौका का, जल में अपहरण किया करती,

इन्द्रिय सुख लिप्सा उसी तरह, अपहरण बुद्धि का कर चलती ।

 

हर इन्द्रिय बहुत प्रबल होती ,होता है उसका बिषय प्रबल ,

मन जब इन्द्रिय से जुड़ जाता, इन्द्रिय हो जाती अधिक सबल ।

वह वेग वायु का बन जाती, अपहरण नाव का करती है,

जो नाव बुद्धि की जग-सागर के तल पर तारण करती है।

 

पथ भ्रष्ट नाव भटके जल में, या टकराकर हो चूर चूर,

या डूबे अनजाने तल में, मल्लाह अगर मदमता चूर ।

होता अयुक्त जन अकुशल ही, या होता है वह मदमाता,

जो वायु वेग में नौका को अपनी रे नहीं बचा पाता ।

 

बहना होता है उसे हवा के साथ मार्ग तजकर अपना,

अपहरित बुद्धि का होता है मन इन्द्रिय के संग संग चलना ।

होती है इन्द्रिय एक बहुत, मन को वियुक्त करके रखती,

अपहरण बुद्धि का हो जाता, फिर नहीं साध साधे सधती ।

श्लोक (६८)

इसलिए सुनो हे महाबाहु, जो वेग इन्द्रियों का भारी,

निग्रह से और नियोजन से, जिसने इन पर नकेल डाली ।

सब तरह समग्र इन्द्रियों को, अपने वश में जो कर पाया,

उसकी ही बुद्धि सुस्थिर है, वह बुद्धि योग कौशल पाया।

 

सबसे सार्थक यह बात रही, निग्रह हो सभी इन्द्रियों का,

उनके अपने जो विषय रहे, उन विषयों से उनका सबका ।

मन पर भी रहे नियंत्रण यों, जैसा चाहो वैसा करता,

व्युत्थान काल में योगी का, हर काम समान रहे चलता

 

अतएव महाबाहो देखो, तुम को यह काम न कठिन रहा,

मन और इन्द्रियों का नियमन, जो बुद्धियोग को विहित रहा।

विषयों से सभी इन्द्रियों को, निगृहीत करो तुम हे अर्जुन,

कर लो निश्चलता प्राप्त बुद्धि की, यही योग का है लक्षण । क्रमशः…