‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक ..29

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 29वी कड़ी  ..

द्वितीयोऽध्यायः – ‘सांख्य-योग’

             ‘सांख्य सिद्धान्त और योग का अभ्यास’

 शलोक (६२,६३)

विषयेच्छा किंचित भी मन की, कर देती नष्ट विवेक पार्थ,

आते-आते रह जाता है-हाथों में जीवन का यथार्थ ।

विषयों का चिन्तन करने से आसक्ति प्रबल हो जाती है

, आसक्ति कामना उपजाती, जो विघ्न नहीं सह पाती है।

 

हो सकी कामना पूर्ण नहीं, तो क्रोध भाव उत्पन्न हुआ,

उत्पन्न क्रोध से मूढ भाव, जड़ता का प्रादुर्भाव हुआ।

जड़ता आती मति भ्रम होता, मति भ्रम मेधा को क्षीण करे,

हो क्षीण बुद्धि विघटित होती, जो ज्ञान शक्ति को नष्ट करे ।

 

इस बुद्धिनाश के होने पर हो जाता मनुज पतित अर्जुन,

वह अर्थ और परमार्थ गंवाकर दोनों को होता निर्धन ।

 

जिस तरह हवा के झोंके से, दीपक बुझ जाया करता है,

अविचार रहे तो आत्म ज्ञान का, क्या दीपक जल सकता है?

जिस तरह सूर्य की आभा को, ढँक लेती है, रजनी काली,

अज्ञान ज्ञान को ढँक लेता, छिप रह जाती आभा सारी ।

 

जन्मान्ध व्यक्ति जैसे अर्जुन, अति दीन हीन भटका करता,

हो बुद्धि – भ्रंश तो कहां मनुज, अपने स्वरुप को फिर लखता?

जब प्राण देह से निकल गये, तो प्रेत रुप तन शेष रहा,

हो गई बुद्धि जब नष्ट पार्थ, तो प्राण प्रेतवत गया कहा ।

 

ईंधन को पकडे चिंगारी तो आग ढेर को राख करे ,

सारा त्रिभुवन जल जाता है जब आग काठ के साथ जले ।

सुधि मात्र विषय की बन जाती, भीषण अनर्थ का रे कारण,

छुटकारा दुर्लभ हो जाता, सहता फिर मनुष्य कष्ट दारुण ।

 

इन्द्रिय विषयों के चिन्तन से, आसक्त मनुज होता उनमें,

विषयों के प्रति आसक्ति जगे, तो काम जागता है मन में

इच्छाएँ मन में कामजनित, विकसित करती रहतीं विकार,

उत्पन्न काम से क्रोध हुआ, मन में भर जाता अन्धकार |

 

उत्पन्न क्रोध से मोह हुआ, स्मृति को जो विभ्रमित करे,

मोहाभिभूत मन में विभ्रम, स्मरण शक्ति को क्षीण करे ।

जब क्षीण हुई स्मरण शक्ति, तो नाश बुद्धि का हो जाता,

हो गई नष्ट जब बुद्धि, मनुज भव-पतन-कूप में खो जाता ।

 

मन सहित इन्द्रियों को वश में, जो मनुज नहीं करने पाता,

उसका होता है अध:पतन यह बात ध्यान में जो लाता ।

वह आगे समझ सकेगा अब किस तरह बुद्धि योगी चलता,

विचरण का होता क्या प्रकार, फल कौन पेड़ में जो फलता ।

 शलोक (६४)

संयम का पालन कर जिसने वश में कर ली इन्द्रियाँ सभी,

वह आत्मजयी विधेयात्मा, पा जाता भगवत्कृपा सभी ।

वह भोग इन्द्रियों का करता, पर राग द्वेष से मुक्त रहा,

अन्तस से विषयासक्ति तजी, वह पतन गर्त में नहीं पड़ा ।

 

वह साधक रहा विधेयात्मा, अन्तस जिसका अपने अधीन,

अरु राग द्वेष से रहित रहीं, जिसकी सारी इन्द्रियाँ प्रव |

वह विचरण करता विषयों में, विषयों का हेतु नहीं बनता,

आनन्दित अन्तःकरण रहे, जिसका हो आत्म भाव जगता।

 

इन्द्रिय संयम या विषय त्याग, इनका भी अपना मान रहा,

पर राग-द्वेष से रहित, इन्द्रियों का होना अधिमान रहा।

मिलता प्रसाद प्रभु का जिसको, वह राग द्वेष से मुक्त रहे,

इन्द्रिय विषयों में विचरण कर भी, वह बन्धन में नहीं बंधे ।

 

इसलिए पार्थ अपने मन से, सारे विषयों को दूर करो,

हट जायें जिससे राग-द्वेष ऐसा मन का अवधान करो ।

बिन राग द्वेष के भोग, इन्द्रियों का न रहा बन्धनकारी,

संसर्ग दोष से मुक्त रहा, यह विचरण उसका मुदकारी ।

 

किरणों के हाथों से सूरज, हर चीज जगत की छूता है,

इस करनी के कारण उसको, सन्सर्ग दोष क्या लगता है?

क्या अग्नि अग्नि में जलती है, अथवा जल में जल डूबेगा?

जो पहुंचा हुआ पुरुष होता, क्या उसे अन्य कुछ सूझेगा?

 

जो सर्वरुप होकर रहता, वह अचल प्रज्ञ दृढ़मति अर्जुन,

संसर्ग दोष से मुक्त रहा, उसका सब सांसारिक जीवन | क्रमशः…