
श्लोक (५८)
भावित मेरी सुधि से होकर, अर्जित कर मेरी कृपा पार्थ,
सब बाधाएँ तय कर लेगा, यह मेरी है वाणी यथार्थ ।
यदि अहंकार वश यह वाणी, तू नहीं सुनेगा तो फिर सुन,
तेरा होगा उद्धार नहीं, तू नष्ट हुआ अपने को गिन ।
यदि मुझमें चित्त लगायेगा, संकट होंगे सब दूर पार्थ,
जो पात्र कृपा का बनता है, वह पार उतरता अनायास ।
रहता घमण्ड में चूर, नहीं देता जो मेरी ओर ध्यान,
होता है लोक नष्ट उसका, परलोक भ्रष्ट होता तमाम ।
वह मुक्ति चुने या नरकवास, इस हेतु रहा मानव स्वतंत्र,
प्रतिरोध करे प्रभु-इच्छा का, तो होता उसका दुखद अन्त ।
हो अहंकार के वशीभूत, वह करे अवज्ञा ईश्वर की,
वह रोक सके अपनी अवनति, इतनी न शक्ति उसमें रहती ।
मुझमें सुस्थिर कर चित्त पार्थ, हर कठिनाई हल होवेगी,
कुछ भी न तुझे करना होगा, हर बात स्वयं पूरी होगी ।
विश्वास न कर यदि रहा स्वयं, अपने में भूला दर्प भरा,
तो पतन अवश्यंभावी है, कोई न किनारा हाथ लगा ।
अर्जुन तुम मेरे परम भक्त, अपने भक्तों का ध्यान रखूँ,
कर सके अवज्ञा जो मेरी, उसको मैं भक्त नहीं समझें ।
जो कर अवज्ञा पार्थ सुनो, उससे न रहा मेरा नाता,
अभिमान रहा जितना उसका, उतने वह गहरे धँस जाता ।
भर दूँगा चित्त तुम्हारा मैं, उस भक्तिभाव से जो अभेद,
मेरा प्रसाद पाकर इसको, मिट जाते मन के पाप खेद ।
पीड़ित कर सके न जग उसको, पाया जिसने मेरा प्रसाद,
दुर्गति से तारण हो जाता, आनन्द बने सारा विषाद ।
श्लोक (५९)
हो अहंकार के वश में तू, मत समझ उपेक्षा कर सकता,
मेरी आज्ञा अवहेलित कर, तू युद्ध किए बिन रह सकता ।
तो समझ कि यह निश्चय मिथ्या, ऐसा न करेगा तू अर्जुन,
तेरा स्वभाव तुझसे बलात, यह युद्ध करा लेगा, तू सुन
यह तेरा अहंकार होगा, यदि कहता नहीं लखूँगा मैं,
निश्चय न कभी पूरा होगा, यदि कहे न धनुष गहूँगा मैं ।
कर देगी विवश प्रकृति तुझको, तू अपना धनुष उठायेगा,
जिनको तू समझ रहा अपना, उन पर ही बाण चलायेगा ।
यह प्रकृति निम्नतर होती जो, भ्रम और पतन का हेतु बने,
पर तत्व बोध जिसका जागा, वह सत्य प्राप्ति का सेतु बने।
बनता विकास का साधक वह, पोषण करता मानवता का,
करता विरोध वह नहीं, निषेध वह करता नहीं, जगत हित का।
उसका न स्वार्थ अपना कोई, उसको है, राम काज करना,
आत्मा आदेशित करती है, उसको अधर्म का क्षय करना ।
जाग्रत रहता उसका प्रकाश, अन्तर्मन से जिसका उद्गम,
उपकरण बना परमात्मा का, करता पूरे अपने उद्यम ।
परमात्मा रखता है विकल्प, जिनमें हमको चुनना होता,
उल्टे बहाव के चलने में, क्या नहीं निपट अपव्यय होता?
स्वाभाविकता है सहज भाव, उसमें होती प्रभु की इच्छा,
खो देता समय शक्ति दोनों, जो रखे प्रमुख अपनी इच्छा ।
ले अहंकार का आश्रय तू, कह रहा’ करूँगा युद्ध नहीं’,
निश्चय यह तेरा मिथ्या है, तू प्रकृति धर्म से मुक्त नहीं ।
क्षत्रिय कुल जन्मा तू अर्जुन, तेरा अपना क्षत्रिय स्वभाव,
यह तुझसे युद्ध करा लेगा, यह सहज कर्म तेरा स्वभाव ।
अज्ञान जनित यह अहंकार, अपने को पण्डित मान रहा,
समझे समर्थ, समझे स्वतंत्र, अपने को कर्त्ता मान रहा ।
आधीन प्रकृति के है मनुष्य होता उसका अपना स्वभाव,
वैसे ही उसके कर्म रहे, जैसा उसका होता स्वभाव ।
‘ये सब मेरे सम्बन्धी हैं’, इनसे कैसे मैं लड़ सकता?
इनका बध करना पाप तुझे, यह माया के कारण कहता ।
यह तत्व रुप से सही नहीं, जीवात्मा मुक्त स्वतंत्र रहा,
यह नहीं जिलाने से जीता, यह नहीं मारने से मरता । क्रमशः….