‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 255 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 255 वी कड़ी..                      अष्टादशोऽध्यायः- ‘मोक्ष सन्यास योग’
‘निष्कर्ष योग’ समस्त अध्यायों का सार संग्रह । मोक्ष के उपायभूत सांख्ययोग (सन्यास) कर्मयोग (त्याग) का अंग प्रत्यंगों सहित वर्णन ।

श्लोक  (५६)

मेरा आश्रित निष्काम भक्त, अनुकम्पा मेरी पा जाता,

सब कर्मो का निर्वाह करे, पर अविनाशी पद पा जाता ।

पा जाता परमधाम मेरा, जो रहा सनातन दिव्य परम,

जिसमें न विकार कहीं कोई अव्यय सत चित आनन्द चरम ।

 

सब भाँति कर्म करता अपने, शरणागत मेरा भक्त पार्थ,

मैं उस पर कृपा किया करता, देता हूँ उसको मुक्ति पार्थ ।

वह शाश्वत पद को पाता है, पाता है परमधाम मेरा,

वह भक्त कर्मयोगी मुझको, अतिशय प्रिय भक्त रहा मेरा ।

 

हो ज्ञान भक्ति या कर्म योग, ये साथ-साथ मिलकर रहते

यह ज्ञान कि प्रकृति शक्ति उसकी, जिसको परमात्म ब्रह्म कहते

है व्यक्ति पात्र उसका ऐसा, जिसको वह स्वयं नचाता है

यह ध्यान जिसे सध जाता वह रे मुक्त कर्म हो जाता है।

 

साधन हैं सारे योग पार्थ, फल जिनका तत्वज्ञान केवल,

योगी पाकर यह तत्वज्ञान, पा लेता मुझको उसके बल ।

कर लेता है मुझमें प्रवेश, मेर स्वरुप को वह पाता,

यह सहज रुप से होता है, व्यवधान नहीं कोई आता

 

सारे परिग्रह का त्याग करे, भोगों से विरत रहे योगी,

एकांत देश में ध्यान करे, तब पाए जिसे सांख्य योगी ।

वर्णोचित कर्मो को करके, वह फल स्वाभाविक पा लेता,

योगी जो भक्तिभाव रखकर, रे कर्मयोग को अपनाता ।

 

करता है प्राप्त ज्ञाननिष्ठा, अभिव्यक्त भक्ति मेरी होती,

समरस वह शान्त प्रसन्न रहे, उपलब्धि उसे मेरी होती ।

जग रहा प्रकाशित जिससे वह, आत्मा, मैं हूँ यह भाव लिए,

वह भक्त भजन करता मेरा, मेरी प्रसन्नता प्राप्त किए । क्रमशः….