
श्लोक (५०)
यह नैष्कर्म जो सिद्धि रही, जो ज्ञान योग की परनिष्ठा ,
किस तरह इसे पाता मनुष्य, खुद ब्रह्म रुप जो हो जाता |
हे कुन्तीपुत्र वहीं तुझको, अब थोड़े में बतलाता हूँ,
कैसे करता है वह प्रवेश, वह तत्व ज्ञान समझाता हूँ ।
हे अर्जुन जिसको सिद्धि मिली, वह पुरुष कि जो रे सिद्ध हुआ,
जैसे पा गया ब्रह्म को वह, उस परम दशा को प्राप्त हुआ
करता स्वरुप साक्षात्कार, पूर्णावस्था कैसे पाता
कैसे वह ब्रह्मभूत होता, सुन उसको भी मैं समझाता ।
निष्पत्ति ज्ञान की ब्रह्म प्राप्ति, होती है कैसे बतलाता,
आत्मा बन रहता ब्रह्म स्वयं, पर वह माया से ढँक जाता ।
लगता है वह अति दूर मगर, निकटस्थ रहा, यदि नेत्र खुले,
हो रहे प्रशिक्षित बुद्धि अगर, संयम धारे मन, स्वतः मिले
श्लोक (५१-५२-५३)
जो निर्मल मति संयुक्त हुआ, अपने मन को वश में करता,
सात्विक प्रवृत्तियों के द्वारा, अपने मन का निग्रह करता ।
इन्द्रिय विषयों का त्याग करे, अरु राग द्वेष से मुक्त रहे,
करता स्वरुप साक्षात्कार, वह ब्रह्मभूत होकर विहरे ।
एकान्तवास का जो सेवी, अरु रहता जो स्वल्पाहारी,
मनवाणी तन पर कर संयम, कर चुका चित्त जो अविकारी ।
भगवच्चिन्तन में जो निमग्न, मानो समाधि में नित रहताज
करता स्वरुप साक्षात्कार, वह ब्रह्मभूत होकर रहता ।
वैराग्य वृत्ति धारण करता, तजता वह मिथ्या अहंकार,
मिथ्या बल, वह मिथ्याभिमान, तज देता वह मन के विकार ।
वह काम तजे, वह क्रोध तेज, वह तजे वस्तुओं का संग्रह,
होकर असंग वह शान्त रहे, वह ब्रह्मभूत प्रभु का विग्रह । क्रमशः….