
श्लोक (४८)
जिस तरह धुएँ से अग्नि ढँकी, सब कर्म दोष से ढँके हुए,
निर्दोष न कोई कर्म रहा, कोई न कर्म से विरत रहे ।
इसलिए कर्म स्वाभाविक जो, हों दोष सहित,पर किए चलो
कर्तव्य कर्म करणीय रहा, उसको न परंतप कभी तजो ।
अपना स्वभाव रखता मनुष्य, उपयुक्त उसी के कार्य करे,
हो दोष भले उसमें लेकिन वह उनका करना नहीं तजे ।
ऐसा न कर्म कोई अर्जुन, जो दोषों से आच्छन्न न हो,
अग्नी को देखो, वह ज्वलंत, पर धूम ढँके रहता उसको ।
प्रारंभकाल में कर्म कौन, जो नहीं कष्टकर होता है?
क्यों नहीं स्वधर्म का पालन हो, जो सहज सरल तम होता है।
कोई न कर्म निर्दोष पार्थ, हो दोष, धर्म का पालन हो
क्या धुँआ आग के साथ नहीं, दूषित करके चलता उसको?
हों दोष युक्त पर सहज कर्म, ये नहीं त्यागने योग्य कभी,
उसको न दोष का पाप लगे, पर कर्म-त्याग से गति बिगड़ी।
निर्दोष विकल्प न सुलभ रहे, हर कर्म दोष से युक्त रहा,
केवल स्वधर्म के पालन से, मानव का हित-कल्याण सधा ।
श्लोक (४९)
पिछली जो छूटी बात उसे, फिर से समझाता हूँ अर्जुन,
सन्यास योग का फल क्या है, किस तरह किया जाए साधन ।
जागृत रखना होता विवेक, वैराग्य भावना तीव्र रहे,
एकांत प्राप्त करना होता, तब साधक से सन्यास सधे ।
यह ज्ञान कि मैं हूँ भिन्न अंश, परमेश्वर का जीवन पाया,
सच्चा सन्यास रहा मनका, जिसने यह सत्य समझ पाया ।
संसिद्धि प्राप्त होती उसको, कर लेता आत्म नियंत्रण जो,
आसक्ति वस्तुओं की तजता, ठुकराता प्राकृत सुख को जो ।
संलग्न न जिसकी बुद्धि कहीं, कुछ भी न रहे परवाह जिसे,
आत्मा को जिसने जीत लिया, परमात्म भाव हो प्राप्त जिसे ।
वह ज्ञान योग में सिद्ध हुआ, धारण करता है सांख्य योग,
नैष्कर्म सिद्धि वह पा जाता, परमात्मा का कर प्राप्त बोध ।
हो बुद्धि अनासक्त जिसकी, कर लिया आत्मवश में जिसने,
इच्छा निःशेष हुई जिसकी, सन्यास किया धारण जिसने ।
वह दशा उच्चतम पा जाता, सब कर्मो से जो ऊपर है,
उसके न कर्म बंधनकारक, वह नहीं कर्म का धारक है।
आध्यात्मिक उन्नति पाने को, संयम का आवश्यक पालन,
इच्छा न रहे कोई मन में, सन्यास त्याग का हो धार ।
आसक्ति अहम् बाधक बनते, यह है स्वभाव निचले तल का,
जो आत्मजयी हो सका नहीं, अज्ञान नहीं उसका हटता ।
सुख भोग सम्पदा सांसारिक, अज्ञान जनित जड़ता लाते,
रखते जो निम्न स्वभाव पार्थ, वे नहीं विजय मन पर पाते ।
सब कर्मों से ऊपर उठना, यह नैष्कर्म सन्यासी का,
जब तक शरीर का साथ रहे, सम्भव न रही रे निष्क्रियता ।
सन्यास आन्तरिक लक्ष्य रहा, हैं प्रकृति अहम् दोनों समान,
मुक्तात्मा रही विशुद्धात्मा, निष्क्रिय, निश्चल, निर्लिप्त शांत ।
प्राकृतिक जग में कार्य करे, ब्रह्मास्मि बोध को धारण कर,
यह नहीं सकारात्मक प्रवेश, यह हुआ मोह माया तजकर
अन्तर्मुख मन से इच्छायें, हो जातीं नष्ट स्वय अर्जुन,
तज मोह, ज्ञान को प्राप्त करे, सन्यस्त हुआ ज्ञानी का मन ।
आ जाता कर्म-साम्य उसमें, सारी प्रवृत्तियाँ रुक जातीं,
अज्ञान मिटा, मिट गये कर्म, लहरें रुक जल में खो जातीं ।
नैष्कर्म सिद्धि यह सर्वश्रेष्ठ, जिसमें न कर्म कोई होता,
मंदिर का कलश इसे समझो, या नद सागर में लय होता ।
अज्ञान ज्ञान दोनों का ही, हो जाता है इसमें विलयन,
कहते हैं इसके परमसिद्धि, इसके आगे न रहा चिन्तन । क्रमशः….