
श्लोक (४७)
जो कर्म दूसरे का उसको, चाहे हम अच्छा कर पायें,
पर बेहतर वह निज कर्म रहा जिसमें न कुशलता हम पायें।
जो कर्म प्रकृति से नियत रहा, कर्तव्य कर्म वह कहलाता,
कर्तव्य कर्म करने वाला, पातक न कभी भी बन पाता ।
गुणयुक्त भले हो कर्म पार्थ, हो विधिवत चाहे अनुष्ठान,
यदि विहित नहीं वह कर्म रहा, तो उचित नहीं उसका विधा।
गुण रहित भले ही हो स्वधर्म, लेकिन वह श्रेष्ठ कहाता है,
स्ववर्णोचित जो धर्म रहा, वह सहज पार करवाता है ।
उसका कल्याण उसी में है, जिसका जो धर्म उसे पाले
होता न उचित जो अन्यों के, कामिक कर्मो को अपना ले।
चंदन की बेड़ी क्यों पहिने, परधर्म उसे बेड़ी जैसा,
क्या पैर त्यागकर सिर के बल, चलने से कोई हित सधता?
होता न पाप को प्राप्त मनुज, जो करता है स्वधर्म पालन,
क्या कुबड़ी माँ का त्याग उचित, जो माँ का प्यार किए धारण?
क्षत्रिय का कर्म ब्राम्हणों के, कर्मों से है हिंसक ज्यादा
इसका यह आशय नहीं कि क्षत्रिय द्वारा वह जाए त्यागा ।
छल, कपट, झूठ, चोरी, हिंसा, जो कर्म निषिद्ध सभी को हैं,
अन्यान्य रहे जो काम्य कर्म, वे नहीं स्वधर्म किसी के हैं।
जो कर्म भक्ति-आराधना के, सामान्य धर्म सबका बनते,
चारों वर्णों के नर-नारी, समरुप उन्हें पालन करते
हो सत्याचरण कर्म में तो, हिंसादिक दोष नहीं लगते,
परधर्म आचरण से लेकिन, परवृत्ति पाप को गह चलते ।
गुणहीन भले ही हो स्वधर्म, वह अन्य धर्म से श्रेष्ठ रहा,
परधर्म गुणों से युक्त रहे, पर वह स्वधर्म से नहीं बड़ा ।
जल से घी में गुण अधिक रहे, पर क्या मछली घी में जीती?
बचनाग रहा विष दुनिया को, पर उसमें रह कीड़ी जीती ।
परधर्म त्याग के योग्य रहा, धारण करने होता स्वधर्म,
जब तक न आत्म दर्शन कर ले, करता ही जाए मनुज कर्म ।
हो पालन भले अधूरा ही, निज धर्म पार्थ निज धर्म रहा,
पर धर्म पूर्ण पालन जिसका, उससे यह हितकर अधिक रहा।
अपने स्वभाव के द्वारा जो, कर्तव्य नियत उसको करता,
उसको न पाप लगता कोई, अनुसरण धर्म का वह करता ।
हर एक मनुज का अलग रहा, वैयक्तिक गुण, उसकी क्षमता
वह ऐसा कुछ कर सकता है, जो नहीं दूसरा कर सकता
हर एक व्यक्ति में ईश्वर के, होते हैं, कुछ उद्देश्य छिपे
कोई न किसी से कम होता, पढ़ना होते संकेत उसे । क्रमशः….