‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 247..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 247 वी कड़ी..                      अष्टादशोऽध्यायः- ‘मोक्ष सन्यास योग’
‘निष्कर्ष योग’ समस्त अध्यायों का सार संग्रह । मोक्ष के उपायभूत सांख्ययोग (सन्यास) कर्मयोग (त्याग) का अंग प्रत्यंगों सहित वर्णन ।

श्लोक  (४३)

धृति, शौर्य, तेज, कौशल रण का, रण से न पलायन दृढ़ता भी,

परिपालन प्रजा आश्रितों का, नेतृत्व दान अरु क्षमता भी ।

क्षत्रिय के कर्म विशिष्ट रहे, जिनको स्वभाववश वह करता,

सतगुण, रजगुण का संमिश्रण, उसके स्वभाव को रे गढ़ता ।

 

‘क्षत्रिय’ का गुण नेतृत्व करे, दे दान आश्रितों को पाले,

निश्चय का दृढ़ वह युद्ध करे, रण कुशल रहे, धीरज धारे ।

रण से न पलायन करे कभी, वह शौर्य शील, वह तेजस्वी,

उसके स्वाभाविक हैं ये गुण, वह योद्धा, कर्मठ, सत्यव्रती ।

 

आध्यात्मिक नेता बन न सके, पर गुण अपने में रखता है,

अनुरुप समय के उसमें भी, आध्यात्मिक तेज उभरता है।

भय, दया, कामना में पड़कर, वह छात्र-धर्म तज सके नहीं,

अपने व्रत का पालन करता, वह विकट काल से डरे नहीं।

 

वह न्याय पक्ष के हित लड़ता, उसका रहता अपना प्रभाव,

संकट के समय न विचलित हो, जागृत रहता उसका प्रताप ।

किससे कैसा व्यवहार करे, यह पूर्ण कुशलता रखता है,

कर्तव्य-धर्म के पालन में, प्राणों का मोह न करता है।

 

अपने बल पर उन्नति करता, यह’शौर्य’ रहा गुण क्षत्रिय का,

अपने सामर्थ्य-गुणों से वह, आश्चर्य चकित जग को करता ।

धबराता नहीं विषमता से, तेजस्वी वह तम को हरता,

कर्तव्य-मार्ग पर अटल रहे, वह करे तेज धारण सत का ।

 

कैसी भी विपदा आए पर, वह’धैर्य’नहीं अपना खोता,

होता न लक्ष्य से दूर कभी, वह ‘दक्ष’ प्राप्त उसको करता ।

बढ़कर लोकोत्तर युद्ध करे, वह सूरजमुखी समान खिले,

उस ओर किए रहता मुँह को, जिस ओर दिवाकर उसे दिखे।

 

दिखलाता पीठ न दुश्मन को, निर्भय उससे डटकर लड़ता,

गुण रहा ‘दान’ का क्षत्रिय में, जो भूषण सा उस पर सजता ।

रखता है ‘ईश्वर भाव’सजग, आश्रित जन का पोषण करता,

संतोष प्रदान करे जग को, सम्पन्न कर्म अपने करता

 

ये क्षात्र-प्रकृति के कर्म’ सात’, आधार कर्म ये उन्नति के,

है वीरों की उपभोग्य धरा, ये अलंकरण हैं पृथ्वी के ।

ये कर्म रहे सुरसिर जैसे, जो पतित पावनी कहलाती,

जीवन को पुलकित हुलसित कर, अपनी गति से बहती जाती। क्रमशः….