
श्लोक (४३)
धृति, शौर्य, तेज, कौशल रण का, रण से न पलायन दृढ़ता भी,
परिपालन प्रजा आश्रितों का, नेतृत्व दान अरु क्षमता भी ।
क्षत्रिय के कर्म विशिष्ट रहे, जिनको स्वभाववश वह करता,
सतगुण, रजगुण का संमिश्रण, उसके स्वभाव को रे गढ़ता ।
‘क्षत्रिय’ का गुण नेतृत्व करे, दे दान आश्रितों को पाले,
निश्चय का दृढ़ वह युद्ध करे, रण कुशल रहे, धीरज धारे ।
रण से न पलायन करे कभी, वह शौर्य शील, वह तेजस्वी,
उसके स्वाभाविक हैं ये गुण, वह योद्धा, कर्मठ, सत्यव्रती ।
आध्यात्मिक नेता बन न सके, पर गुण अपने में रखता है,
अनुरुप समय के उसमें भी, आध्यात्मिक तेज उभरता है।
भय, दया, कामना में पड़कर, वह छात्र-धर्म तज सके नहीं,
अपने व्रत का पालन करता, वह विकट काल से डरे नहीं।
वह न्याय पक्ष के हित लड़ता, उसका रहता अपना प्रभाव,
संकट के समय न विचलित हो, जागृत रहता उसका प्रताप ।
किससे कैसा व्यवहार करे, यह पूर्ण कुशलता रखता है,
कर्तव्य-धर्म के पालन में, प्राणों का मोह न करता है।
अपने बल पर उन्नति करता, यह’शौर्य’ रहा गुण क्षत्रिय का,
अपने सामर्थ्य-गुणों से वह, आश्चर्य चकित जग को करता ।
धबराता नहीं विषमता से, तेजस्वी वह तम को हरता,
कर्तव्य-मार्ग पर अटल रहे, वह करे तेज धारण सत का ।
कैसी भी विपदा आए पर, वह’धैर्य’नहीं अपना खोता,
होता न लक्ष्य से दूर कभी, वह ‘दक्ष’ प्राप्त उसको करता ।
बढ़कर लोकोत्तर युद्ध करे, वह सूरजमुखी समान खिले,
उस ओर किए रहता मुँह को, जिस ओर दिवाकर उसे दिखे।
दिखलाता पीठ न दुश्मन को, निर्भय उससे डटकर लड़ता,
गुण रहा ‘दान’ का क्षत्रिय में, जो भूषण सा उस पर सजता ।
रखता है ‘ईश्वर भाव’सजग, आश्रित जन का पोषण करता,
संतोष प्रदान करे जग को, सम्पन्न कर्म अपने करता
ये क्षात्र-प्रकृति के कर्म’ सात’, आधार कर्म ये उन्नति के,
है वीरों की उपभोग्य धरा, ये अलंकरण हैं पृथ्वी के ।
ये कर्म रहे सुरसिर जैसे, जो पतित पावनी कहलाती,
जीवन को पुलकित हुलसित कर, अपनी गति से बहती जाती। क्रमशः….