
श्लोक (४१)
वर्णों का यह सिद्धांत पार्थ, विस्तारित करता क्षेत्र अर्थ,
जीवन भीतर बाहर समान, यदि नहीं रहा, वह रहा व्यर्थ ।
ऐसा बन रहे बाहृय जीवन, अन्तस को जो अभिव्यक्त करे,
हो जन्मजात स्वभाव जिसका, वह उसके कर्मों में उतरे ।
प्रत्येक व्यक्ति है केन्द्र बिन्दु, है अंश एक परमात्मा का,
उसका पहिला कर्तव्य यही, साकार उसे करने पाता ।
अपना स्वभाव है सत्य वही उपकरण प्रकृति के हम बनते,
अभिव्यक्त उसे ही कर पायें, उसके द्वारा माध्यम बन के ।
अपना स्वभाव, अपना स्वधर्म, समझें हम, करें उसे पालन,
प्रतिफलित सत्य वह हो जाये, जिसको करते हैं हम धारण।
लेकिन जो करना कर्म उन्हें, कर पाता नहीं मनुज भूला,
पाता न पूर्णता वह अपनी, मानो दोलन बनकर झूला ।
अनुकूल स्वभाव के कर्म करे, धर्मात्मा बनकर रहता है,
ईश्वर को अर्पित कर्म रहे, वह आध्यात्मिकता गहता है ।
पूर्णत्व प्राप्त होता उसको, अव्ययम् पद्य वह प्राप्त करे,
ब्रह्मत्व प्रगट होता उससे, वह जो भी अपने कर्म करे ।
घटनाओं का कर्त्ता बनकर, सम्पूर्ण जगत का बन जाता,
रच चले योजनाएँ अपनी, बनकर सारे जग का त्राता ।
धरती पर विग्रह फैल चले, कर्मो में दूषण भर जाता,
बन पाती नहीं व्यवस्था कुछ, विघटन विनाश बढ़ता जाता ।
सम्मुख जो एक समस्या को, प्रस्तुत करता मानव-जीवन,
वह सच्चे आत्म-खोज की है, मानव द्वारा सत्यानुशीलन ।
अथवा स्वभाव से विमुख हुए, हम केवल करते पाप रहें,
भूले हम अपना धर्म रहें, अपने ही सदा विरुद्ध चलें ।
वर्गो में नहीं व्यष्टियों में, मानव जीवन देखा जाए,
प्राकृतिक गुण जिसका जैसा, वैसा उसको लेखा जाए ।
यह व्यष्टि समष्टि का अंगभूत, रह सजग करे हित का वर्द्धन,
उसकी ही रही व्यवस्था यह, चारों वर्णो की, हे अर्जुन ।
यह नहीं जन्म या रंग-भेद, यह गुण विशेष का भेद रहा,
इनके अनुरुप प्रकार चार, सामाजिक जीवन रहा बटा ।
कर्तव्य सुनिश्चित सामाजिक, उनके उपयुक्त बनाती है,
यह एक व्यवस्था जीवन की, जो सुख की राह दिखाती है।
जन्मों-जन्मों के कर्मो के, जो संस्कार रचते स्वभाव,
गुण-वृत्ति प्राणियों में पैदा करता है, अन्तस का स्वभाव ।
गुण के द्वारा जो बने वर्ण, ये चार, कर्म इनके विभिन्न,
गुण-वृत्ति भिन्नता के कारण, होते हैं इनके कर्म भिन्न । क्रमशः….