
श्लोक (४०)
ऐसा न रहा कोई प्राणी, अवनीतल पर हे भरतर्षभ,
जिसमें न प्रकृति के तीनों गुण, हों विद्यमान हे भरतर्षभ ।
पृथ्वी तो क्या स्वर्गीय देव, भी प्रकृत गुणों से नहीं बचे
त्रिगुणों का उन पर असर रहा, माया से ही सब गये रचे ।
न पृथ्वी पर, न स्वर्ग में ही, मनुजों में नहीं न देवों में,
कोई ऐसा प्राणी अर्जुन, जिसमें न रहे गुण ये तीनो ।
यह प्रकृति रही जीवन काया, गुण तीनों व्याप्त रहे इसके,
ऐसा कोई प्राणी न रहा, जो मुक्त रहा इन त्रिगुणों से ।
हो मृत्यु लोक या स्वर्गलोक, कोई न वस्तु ऐसी इनमें,
माया का हो अस्तित्व जहाँ, गुण तीनों नहीं रहे जिसमें ।
कम्बल न ऊन के बिन बनता, लोंदा न बने मिट्टी के बिन,
लहरों का क्या अस्तित्व कहीं, जल-तल के बिन, पानी के बिन?
कोई न रहा ऐसा प्राणी, बिन गुण के जिसका सृजन हुआ,
सारे पदार्थ, यह जग सारा, गुण-धर्मो से ही सृजित हुआ ।
त्रिगुणों की शक्ति त्रिदेव रहे, तीनों लोकों में गुण प्रभाव,
वर्णों के कर्मों में इनका, दर्शित होता है मूल भाव
कोई न सत्त्व ऐसा अर्जुन, जो प्रकृति गुणों से युक्त न हो,
पृथ्वी का हो अथवा नभ का, जो सत, रज, तम से युक्त न हो।
इनके अतिरिक्त कहीं भी रे, ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं,
सत, रज, तम प्रकृति गुणों में से, जिसमें कोई गुण प्रमुख नहीं।
श्लोक (४१)
सतगुण, राजस, तामस गुण पर, सधती है वर्ण व्यवस्था ये,
गुण की प्रधानता के कारण, बनती है वर्ण-व्यवस्था ये ।
ब्राहाण, क्षत्रिय, अरु, वैश्य, शूद्र, इनके कर्मो में भेद रहा,
स्वाभाविक गुण इनके विभिन्न, जैसा गुण वैसा कर्म रहा ।
सतगुण प्रधान जिसका स्वभाव, वह ‘ब्राह्मण’उसके कर्म अलग,
सत मिश्रित रजोगुणी स्वभाव, वह ‘क्षत्रिय’उसके कर्म अलग।
रज मिश्रित तमोगुणी स्वभाव, वह ‘वैश्य’ कर्म अन्यान्य करे,
जो तमोगुणी वह ‘शूद्र’ रहा, उसके भी कर्म विभिन्न रहे ।
ब्राहाण, क्षत्रिय अरु वैश्य तीन, ये द्विज पहिनें यज्ञोपवीत,
शूद्रों के कर्म अलग इनसे, उनके स्वभाव की अलग लीक ।
गुण के अनुसार स्वभाव बने, जो करे कर्म का निर्धारण,
यह ‘वर्ण-व्यवस्था’ जन्म नहीं, बनती है ‘कर्मो के कारण’ ।
यह वर्ण व्यवस्था स्वाभाविक, लागू सब जगह समान रही,
मानव स्वभाव के जो प्रकार, उस पर इसकी हैं नींव पड़ी।
यह आत्यन्तिक न अनन्य रही, यह सदा न जन्म से निर्धारित,
इसका आभ्यान्तर है स्वभाव, जो किए व्यवस्था को धारित । क्रमशः….