
श्लोक (३४)
धृति रही राजसी वह अर्जुन, जो इच्छाएँ उत्पन्न करे,
आसक्ति जगाए जीवन में, मन में नूतन उत्साह भरे ।
जो धर्म, अर्थ अरु काम रुप, फल पाने चाह जगाती हो,
मन, प्राण, इन्द्रियाँ, इनको जो, सुख पाने एक बनाती हो ।
वह धृति जिसके द्वारा मनुष्य, दृढ़ता पूर्वक चिपका रहता,
अपनी कृति से, अपने धन से, सुख से, जिसका अनुभव करता।
करता जो कर्म, चाहता फल, बदले में अपने धीरज के,
वह रही राजसी धृति अर्जुन, धारक जिसके राजस गुण के।
माने शरीर को जो स्वरुप, परलोक लोक का सुख चाहे,
वह अर्थ, धर्म अरु काम हेतु, सक्रिय रहकर धीरज धारे ।
श्रम करे कामनाएँ लेकर, धर धीर लाभ अपना हेरे,
उसकी धृति राजस धृति अर्जुन, उसके न कटे बन्धन घेरे ।
पुरुषार्थ अधूरा रहता है, राजस धृति धारक का अर्जुन,
फल की आकांक्षा लिए हुए, वह साध रहा होता जीवन ।
नहीं मुक्ति के लिए धारणा, केवल सुख के लिए रही,
रहा रजोगुण भाव प्रबल, मन में गहरी आसक्ति रही
धृति से जो करे धर्म धारण, धृति से जो धन का भोग करे,
धृति द्वारा अर्थ, काम साधे, धृति का ही जो उपभोग करे ।
ऐसी धृति कर्मो से बांधे, उपलब्ध न मुक्ति कराती है,
यह रही ‘राजसी धृति’ अर्जुन, केवल आसक्ति बढ़ाती है।
वह धारण शक्ति राजसी है, जिसको धारण करके मनुष्य,
फल की इच्छा के सहित सकल, करता अपने सम्पन्न कृत्य ।
वे धर्म अर्थ के कृत्य रहे, या रहे कामना के उद्यम,
सम्बंध रजोगुण से रखते, धृति रजोगुणी वह है अर्जुन ।
श्लोक (३५)
अर्जुन वह रही ‘तामसी धृति’, उपजाए जो दुर्बुद्धि सदा,
मन प्राण इन्द्रियों सहित मनुज, जिसके कारण तम में उतरा ।
जिसके कारण बरबस मानव, भय शोक विषाद किए धारण,
रुचि रखे स्वप्न में निद्रा में, हो मोह विकल जिसके कारण ।
जिस धृति के द्वारा मूर्ख व्यक्ति, कर पाता त्याग न निद्रा का,
भय शोक किए रहता धारण, अभियान रहे जिसका बढ़ता ।
वह नहीं विषाद को त्याग सके, त्यागे न दोष के वह कारण,
यह अन्धकूप बनकर रहती, जो रही तामसी धृति अर्जुन ।
वह दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य, भय चिन्ता से जो युक्त रहे,
दुख अपना बढ़ा चले दिन-दिन, निद्रा, प्रमाद न त्याग सके ।
इसलिए कि धारणा शक्ति उसे, ऐसा करने प्रेरित करती
वह धारण शक्ति तामसी है, जिसमें न किरण सत की जगती
अतिमंद मलिन हो रहे बुद्धि, अन्तस में रहे अनिष्ट भरा,
इन्द्रियाँ रहें आवृत तम से, मन में हो मोह विषाद भरा ।
दुश्चिन्ताओं से घिरा हुआ, उन्मत्त रहे, वह रहे दुखी,
तामस धृति के ये लक्षण हैं, यह करे मनुज को अधोमुखी ।
निद्रा, भय, शोक, विषाद, दर्प, ये पाँच तामसी दोष रहे,
जो रही तामसी धृति अर्जुन, इन दोषों को वह धार चले ।
इसका स्वरुप निकृष्ट रहा, संचार किया करती मद का,
लहसुन में ज्यों दुर्गंध रही, इसमें है वास तमोगुण का ।
पापों का पोषण करने से, दुख नहीं छोड़ता साथ कभी,
निद्रा आलस्य न छूट सके, भय शोक न होते दूर कभी ।
मिलता न व्याधि से छुटकारा, ये दोष पाप के साथ बढ़े,
आश्रय यह तामस धृति बनती, धारक को जो उन्मत्त करे ।
धन यौवन और वासना का, दिन-दिन दूना आवेग बढ़े,
पा जाती साथ हवा का तो, धरती की रज, आकाश चढ़े ।
तामस-धृति होती दुर्मेधा, यह अहित दूसरों का चाहे,
कारण अनर्थ का रहे सदा, जागा मनुष्य, इसको त्यागे । क्रमशः….