‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 239 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 239 वी कड़ी..                      अष्टादशोऽध्यायः- ‘मोक्ष सन्यास योग’
‘निष्कर्ष योग’ समस्त अध्यायों का सार संग्रह । मोक्ष के उपायभूत सांख्ययोग (सन्यास) कर्मयोग (त्याग) का अंग प्रत्यंगों सहित वर्णन ।

श्लोक  (३२)

जो विवश रही अज्ञानावृत, जो अन्धकार में हो डूबी,

विपरीत विधानों के चलना, जिसकी अपनी होती खूबी ।

माने अधर्म को धर्म सदा, अरु धर्म अधर्म लगे जिसको,

वह बुद्धि तामसी कहलाती, उल्टा पथ-गमन रुचे जिसको ।

 

समझे अधर्म को धर्म पार्थ, हर सत्य उसे विपरीत दिखे,

अज्ञान राशि में डूबी वह, विकृति के ही अभिलेख लिखे ।

तमसावृत दृष्टि न देख सके, जग की कोई भी अच्छाई,

जो विमुख सत्य से रही सदा, वह बुद्धि तामसिक कहलाई ।

 

‘है यही धर्म’उसको कहती, जो धर्म नहीं अधर्म होता,

ऐसा ही अन्य पदार्थो में, होता रहता जिसको धोखा ।

जो घिरी तमोगुण से रहती, वह बुद्धि तामसी कहलाती,

विपरीत बुद्धि इसको कहते, यह अपने साथ पतन लाती

 

अपमान गुरुजनों का करना, निंदा करना परमात्मा की,

करना निषिद्ध सब पापकर्म, आवाज दबाना आत्मा की ।

जो हानि, समझना लाभ उसे, जो शुद्ध अशुद्ध उसे कहना,

वह रही तामसी बुद्धि पार्थ, विपरीत रहा जिसका चलना ।

 

जो गुण को दोष समझती है, जो चोखे को समझे खोटा,

बल देती निशा राक्षसों को, दिन में राक्षस निर्बल होता ।

यह बुद्धि तामसी, प्रकृति धर्म से उल्टा धर्माचरण करे,

कीचड़ से क्या कीचड़ धुलती, कल्याण मार्ग क्या उसे मिले?

श्लोक  (३३)

धृति रही सात्विकी वह अर्जुन, जो प्रभु-चिन्तन में अटल रहे,

योगाभ्यास से सिद्ध अचल, जो भावाविष्ट अनन्य रहे ।

मन प्राण इन्द्रियाँ जिसके वश, अविचल हो जातीं एकनिष्ठ,

कहलातीं अव्यभिचारिण्या, पदवी होती इसकी विशिष्ट ।

 

वह अविचल धृति जिसके कारण, एकाग्र भाव साधक पाता,

मन प्राण इन्द्रियों का समूह, जिसके वशवर्ती हो जाता ।

स्थिरता रही ध्यान की यह, साधक को अर्न्तदृष्टि मिले,

इस धृति को सात्विक कहते हैं, इसमें अन्तर्पट रहे खुले ।

 

धृति है वह सात्विक धैर्य पार्थ, मन, प्राण इन्द्रियाँ विषय त्याग,

हो जातीं अन्तर्मुख प्रशांत, उस परम धैर्य्य के साथ साथ ।

वह किए समाहित अपने में, निर्लोभ रहे, होकर अनन्य,

उसको ही सात्विक धृति कहते, साधक जिससे हो रहे धन्य ।

 

सात्विक धृति का उद्देश्य एक, पाना चाहे परमात्मा को,

विचलित न लक्ष्य से हो अपने, पा लेती है परमात्मा को ।

कैसा भी कारण आए वह, विषयों में लिप्त नहीं होती,

मन, प्राण, इन्द्रियाँ शान्त रखे, चंचल न उन्हें होने देती । क्रमशः….