
श्लोक (२७)
लेकिन आसक्त, कर्मफल की, मन में जो चाह लिए अर्जुन,
इच्छाएँ नई-नई लेकर, आकुल-व्याकुल नित जिसका मन ।
ले चाह भोग की वह लोभी, नित राग-द्वेष में निरत रहे,
वह कर्त्ता ‘राजस’कहा गया, अपवित्र रहे वह शोक करे ।
करता है राग उसे प्रेरित, फल पाने रहती उत्सुकता,
रहती है लोभवृत्ति जागी, हिंसा में भी वह रुचि रखता ।
शुचिता का रखता ध्यान नहीं, होता प्रसन्न मनमानी कर,
बिगड़े यदि कोई काम कहीं, दुख मना चले वह सांसे भर ।
वह रहा राजसिक कर्त्ता जो, लोभी प्रवृत्ति का होता है,
अपना अधिकाधिक सुख पाने, दुख सारे जग को देता है।
आचार अशुद्ध रहे जिसका, जिसकी गहरी आसक्ति रही,
जो हर्ष-शोक में लिप्त रहा, राजस कर्त्ता की परख यही ।
परलोक लोक का सुख चाहे, वह कर्म करे सुख-भोगों को,
पर स्वत्व हड़प लेना चाहे, दे चले कष्ट वह लोगों को ।
रागी वह लुब्ध, फलेशु कर्म, हिंसक लोलुप वह मन मलीन,
राजस कर्ता पुनि पुनि जन्मे, रहता है वह आश्रय विहीन ।
वह केन्द्र वासना का बनता, कूड़ा करकट का ढेर बने,
दोषों की पायदान बनकर, वह अपने सुख की वृद्धि करे ।
बगुला जैसा करता शिकार, चूसे वह घृत की माखी को,
जल जाए तेल न दीपक का, वह रखे बुझाकर बाती को
जल्दी फल पाने कर्म करे, हो रहे उतावला व्यग्र रहे,
सामर्थ्य नहीं होता फिर भी, वह भाँति-भाँति के यत्न करे ।
किसको कितना दुख पहुंच रहा, इसकी वह फिकर नहीं करता,
वह रहा राजसी कर्त्ता जो कितनों का ही अनहित करता । क्रमशः….