
श्लोक (२६)
वह कर्त्ता सात्विक कहलाए, आसक्ति न जो रखता जग में,
वह धैर्य्य और उत्साह युक्त, चलता असंग जीवन-मग में ।
वह अंधकार से रहित वीर, समभाव रखे हित अनहित में,
निर्द्वन्द्व रहे वह निर्विकार, समता धारे रहता चित में ।
करता न अहम् की बातें जो, आसक्ति रहित जो पुरुष रहा,
हो रहा सफल या असफल पर, उत्साह धैर्य्य से युक्त रहा।
विचलित न हुआ अपने पथ से, विघटित न हुआ जिसका संयम,
वह सात्विक ढंग का है कर्त्ता, आनंदित रहता उसका मन ।
चन्दन की शाखायें जैसे, फल की आशा को छोड़ बढ़ें,
पत्तों से ही सन्तुष्ट रहे, ज्यों नागवेल में फल न फलें ।
उत्तम कर्मो को किया करे, फल की न कामना हो मन में,
निष्फल न कर्म कोई होता, यह तथ्य उजागर जीवन में ।
कर्त्तापन का अभिमान नहीं, शास्त्रोक्त कर्म करता मन से,
नियमों का कर चलता पालन, संयम पाले वह धीरज से ।
निद्रा आलस्य न रहने दे, उत्साह न घटने दे मन का,
हो चले कर्म की लगन तीव्र, घट चले मोह जग जीवन का ।
हो कार्य पूर्ण अथवा अपूर्ण, वह हर्ष शोक में नहीं पड़े,
समभाव रहे, कर्त्तव्य करे, वह नहीं किसी से मोह रखे ।
इच्छा न विषय-सुख की रखता, मिटता उसका देहाभिमान,
जिसके ऐसे लक्षण अर्जुन, वह सात्विक कर्त्ता निरभिमान ।
वाणी न दर्प की जो बोले, जो संग रहित जो परम सुखी,
हो सिद्ध कार्य अथवा असिद्ध, उस कारण सुखी न हुआ दुखी।
अविकारी रहता मन जिसका, जो हर्ष-शोक से मुक्त रहे,
वह सात्विक कर्ता रहा पार्थ, सात्विक गुण से जो कर्म करे।
वह मुक्त संग अनहंवादी, धीरज उत्साह समन्वित जन,
अविकारी सिद्धि असिद्धि बीच, आसक्ति रहित जो जिसका मन,
वह विघ्नों को हंसकर सहता, रहता सम अपनी विजय बीच,
वह कर्त्ता सात्विक रहा पार्थ, जो नहीं त्यागता विहित लीक ।
सारे भावों का समावेश, जिसमें है पूरी सात्विकता,
जैसे-जैसे घटते हैं, गुण घटती जाती है सात्विकता ।
परमात्मा तत्व को प्रगट करे, सात्त्विकता जब हो पूर्णभाव,
सात्विक कर्त्ता में रहता है, रे सांसारिकता का अभाव । क्रमशः….