‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक ..22

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की दूसरी कड़ी 22 वी कड़ी  ..

द्वितीयोऽध्यायः – ‘सांख्य-योग’

             ‘सांख्य सिद्धान्त और योग का अभ्यास’

श्लोक (३६) 

इन दुर्जन शत्रु कौरवों को, अच्छा अवसर मिला जायेगा,

कहलाना क्या कायर अर्जुन, तब तुझे जरा भी भायेगा?

हे धीर धनुर्धर कर प्रयत्न, रक्षा कर अपने गौरव की,

यह प्राप्त सुअवसर हुआ तुझे, फहरा फिर ध्वजा विमल यश की।

 

अपने प्राणों को भी देकर, यश की, की जाती है रक्षा,

यशगान तुम्हारा सुन अर्जुन, यमराज स्वयं भय से कंपता ।

गंगाजल सी निर्मल गहरी, है कीर्ति तुम्हारी हे अर्जुन,

यशगान तुम्हारा सुन सुनकर, उत्साहित होते योद्धागण ।

 

अपने प्राणों से है हताश, कौरव सुनकर जिस महिमा को,

जो रही वीरता की तेरी, उस अक्षय गौरव गरिमा को ।

जिस तरह सिंह का गर्जन सुन, हाथी मदमते सहम जाते,

या बज्र देख पर्वत डरते, या सर्प गरुड़ से भय खाते ।

 

हैं भयाक्रान्त कौरव सारे, वे कितना दर्प जतायेंगे,

यदि विमुख युद्ध से हुआ तुझे, हे अर्जुन जब वे पायेंगे।

होगी महानता सब समाप्त, पग पग पर बस हेठी होगी.

तुम जहां भागकर जाओगे, उनकी सेना पीछे होगी

 

वे तुमको कहीं न छोड़ेंगे, अपमान करेंगे अधिकाधिक,

बोलेंगे शब्द अवाच्य तुम्हें, मर्माहत करने अभिलक्षित ।

मर्माहत होने के बदले, क्यों नहीं युद्ध करने बढ़ते?

अपमान जनक क्या शब्द नहीं, कोमल अन्तस्तल में गड़ते?

श्लोक  (३७)

लड़ते-लड़ते मर गये अगर, तो सहज स्वर्ग-सुख पाओगे,

जीते तो सारी पृथ्वी पर तुम, विजय-केतु फहराओगे

इसलिए अधिक मत सोचो अब, सन्नद्ध युद्ध को हो जाओ,

पालन स्वधर्म का करके तुम, फिर मुक्त दोष से हो जाओ।

श्लोक  (३८)

देखो स्वधर्म के पालन से, सब दोष नष्ट हो जाते हैं,

जब युद्ध धर्म धारित होता, क्या पाप ठहरने पाते हैं?

हो नाव पास जिसके क्या वह दरिया में डूबा करता है?

चलना ही अगर न आया तो, वह ठोकर से गिर सकता है।

 

सुख मिला हुए सन्तुष्ट बहुत, दुख मिला कि हुए दुखी भारी,

यदि लाभ हुआ तो फूल गये, लख हानि उदास हुए भारी ।

लड़ने के पहिले ही विचार, जीतेंगे अथवा हारेंगे?

वे भले-बुरे फल के भागी, मन में समत्व क्या धारेंगे?

 

अमरित पीने से मृत्यु कहाँ, हाँ विष पीने से होती है,

हो क्षात्र धर्म का परिपालन, तो हर कृति पुण्य संजोती है ।

निष्काम भाव से युद्ध करो फिर कहाँ वहाँ पर पाप रहे?

पालन स्वधर्म का हुआ जहाँ, दूना उस जगह उछाह रहे।

 

क्या हार-जीत क्या हानि-लाभ, क्या सुख-दुख सब जब हों समान,

समबुद्धि रहे तो पाप कहाँ, अर्जुन तू अपना धनुष तान ।

होगा न पाप का भागी तू कारण जो कर्म शुभाशुभ का,

रहता है सदा मुक्त उससे, समभाव कर्म में जो रखता । श्लोक  (३९)