‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 215..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 215 वी कड़ी ….

       सप्तदशोऽध्यायः – ‘श्रद्धात्रय विभाग योग’ अध्याय सत्रह – ‘श्रद्धा तत्व पर लागू किये गए तीनो गुण’

श्लोक  (२५)

सत्कर्म स्वतः अपनी गति से, अपने बल से चलते रहते,

व्यवहार-जगत में कहाँ नहीं, रजकण दर्पण धूमिल करते ।

उनका हो जाता प्रच्छालन, कर्मो को गति दूनी मिलती,

परिचय सुवास से दे देती, रे जहाँ रात रानी खिलती ।

 

सम्पूर्ण यज्ञ का परम लक्ष्य, ‘ओम तत सत ‘का आव्हान करे,

क्रियायें सिद्ध सभी होती, ‘ओम तत सत ‘का ही गान करे।

हर भांति पूर्णता पा जाते, ओम तत सत का कर पारायण,

वह परम स्वरुप दिव्य मिलता, ‘ओम तत सत’ का जो करे वरण।

 

तप दान यज्ञ में दृढ़ रहना, यह भी ‘सत’का पालन होता,

इनके हित रहे प्रयोजन जो, उनसे भी ‘सतःधारण होता ।

‘सत’भासित रहा क्रियाओं में, ज्यों सागर को जातीं नदियाँ,

श्रद्धा, निष्ठा का वाचक ‘सत’, ‘सत ‘में ही निहित सभी निधियाँ।

 

जिनके फल नित्य नहीं होते, वे कर्म नहीं सत के धारक,

सत कर्म अकेला कर्म रहा, जो होता जन का उद्धारक ।

कर्त्ता का अन्तःकरण शुद्ध, सत का सत से हो अवलम्बन,

हो प्राप्ति सुगम परमात्मा की, सार्थकता पा जाता जीवन ।

 

लेकिन अर्जुन श्रद्धा के बिन, रहते ये कर्म असत सारे,

श्रद्धा बिन किया यज्ञ निष्फल हैं, व्यर्थ दान तप व्रत सारे ।

फल यज्ञ दान तप का उनको, मिलता न यहाँ इस जीवन में,

ये कर्म न उनके सफल हुए, लोकान्तर में जीवान्तर में ।

 

जो यज्ञ किया बिन श्रद्धा के, श्रद्धा विरहित जो दान दिया,

जो बिन श्रद्धा के कर्म हुआ, जो तप श्रद्धा बिन किया गया।

वह यज्ञ, दान, तप व्यर्थ रहा, वह असत रहा, निष्फल जीवन,

उसको न लोक में लाभ मिले, परलोक नहीं सुधरे अर्जुन ।

 

हो हवनदान या तप अर्जुन, या कर्म जिसे शुभ माना हो,

लेकिन अभाव यदि श्रद्धा का, प्रभु को अगर सन्माना हो ।

वे कर्म सभी हो रहे ‘असत’ उनका न कभी फल मिलता है,

इनसे यह लोक न सुधर सके, इनसे परलोक बिगड़ता है।

1卐। इति श्रद्धात्रय विभाग योगो नाम सप्तदशोध्यायः ।卐।