‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 214..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 214 वी कड़ी ….

       सप्तदशोऽध्यायः – ‘श्रद्धात्रय विभाग योग’ अध्याय सत्रह – ‘श्रद्धा तत्व पर लागू किये गए तीनो गुण’

श्लोक  (२५)

जिसका अस्तित्व सदा रहता, वह परम तत्व वह अविनाशी,

वह शुद्ध श्रेष्ठ वह साधु भाव, ‘सत’ की सीमा किसने आंकी?

‘सत’ स्वयं प्रशस्त कर्म रहता, उसमें न कामना का हलन्त,

‘सत’रहा सार का सार परम, ‘सत की महिमा रहती अनन्त ।

 

‘सत’शब्द प्रदर्शित करता है, वास्तविकता को अच्छाई को,

इसका प्रयोग दर्शाता है, व्यापक निःशेष भलाई को ।

जो कार्य प्रशंसा योग्य रहे, उनका भी बोध कराता है,

‘सत’ नाम अमरता का है जो, अमृत बनकर छा जाता है।

 

जो है अनादि, वह परम ब्रम्ह, ओंकार मन्त्र उसका ही है,

उसकी न जाति, उसका न नाम, ब्रह्माण्ड अखिल उसका ही है।

कर सके जीव उसके दर्शन, पा सके जीव परमात्मा को,

वेदों ने मन्त्र प्रदान किया, श्री पति ने स्वीकारा जिसको ।

 

‘ओम तत सत’ का आश्रय पाकर, ब्रह्मा ने सारी सृष्टि रची,

श्रीपति से पालित हुआ जगत, शंकर में लय की शक्ति बसी ।

सब मन्त्रों में यह श्रेष्ठ मन्त्र, गुणगान रमापति करते हैं,

होते विमुक्त जग जीवन में, जो मन्त्र जाप यह करते हैं।

 

ओंकार मूल अक्षर इसका, ‘तत’ कार दूसरा अक्षर है,

अक्षर ‘सतकार’ तीसरा जो वह ‘असत’ जगत का ही ‘सत’ है।

यह तीन पंखुरियों का प्रसून, सर्वत्र घोलता है सुवास,

वह कर्म मुक्ति को सुलभ करे, जिसके संग हो यह मन्त्र जाप।

 

जैसे तन की शोभा बढ़ती, आभूषण धारण करने से,

कमों की शुचिता बढ़ जाती, विनियोग मंत्र का करने से ।

ओंकार ध्यान से मन निर्मल, उच्चारण से वाचा पवित्र,

कर्मों में सात्विकता विभूति, भासित होती काया अनित्य ।

 

विनियोग मन्त्र का युक्तिपूर्ण, तप, ज्ञान, यज्ञ के दोष हरे,

कर ध्यान सिद्ध ओंकार करे, फिर वाचा से ओंकार भजे ।

फिर कर्म-आचरण में उतार, साधक करता है पारायण,

पालन करते सब कर्मो का, ओंकार भजा करता है मन ।

 

अनुभूति हुआ करती उसको, ‘मेरा न रहा, सब कुछ तेरा’,

‘तत’का ही यह विनियोग रहा, कट जाता माया का घेरा ।

जग का सब असत उजागर हो : ‘सत’का विनियोजन होने पर,

हो आता ज्ञान उसे, जीवन-यह मेरा नहीं पराया घर ।

 

रहता न शेष देहाभिमान, रहता न दम्भ कर्त्तापन का,

जो लिखे इबारत पानी पर, पानी की लहरों से लिखता ।

‘ओम तत सत’ की महिमा अपार, जग हो विलीन सब दृश्यमान,

हो बोध ‘ब्रह्म’ का ही केवल, कहलाता है जो परम ज्ञान । क्रमशः….