रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।सप्तदशोऽध्यायः – ‘श्रद्धात्रय विभाग योग’ अध्याय सत्रह – ‘श्रद्धा तत्व पर लागू किये गए तीनो गुण’
श्लोक (२४)
योगी जन सब इसलिए सदा, पर ब्राह्म प्राप्ति के लिए निरत,
तप यज्ञ दान की क्रिया में, रहते हैं जो अविरल उद्यत ।
वे उन्हें सदा प्रारंभ करें, ‘ओंकार ‘नाम उच्चारण से.
तप यज्ञ दान के पूर्व सभी, उच्चारण ‘ओम’का ही करते ।
वैगुण्य दोष मिट सब जाते, वे शिव पवित्र हो जाते हैं,
भगवान नाम की महिमा यह, साधक सात्विकता पाते हैं।
तप यज्ञ रहे या दान कर्म, प्रारंभ ‘ओम’से होता है,
दोषों का होता रहे शमन, शुचिता का पारण होता है।
श्लोक (२५)
विधि यज्ञ दान या तप की हो, प्रारंभ मन्त्र से की जावे,
ओम तत सत के उच्चारण से, दिव्योपलब्धि बरबस आये।
क्रियायें दिव्य इन्हें अर्जुन, भव-बन्धन मुक्ति हेतु करते,
इसमें कोई संदेह नहीं, पाते विमुक्ति जो ‘तत’ भजते ।
जो मोक्ष प्राप्त करना चाहें वे ‘तत’ का करते उच्चारण,
तप दान करें या यज्ञ करें, :’तत’का आशय करते धारण ।
फल की न रखें मन में इच्छा, बस मोक्ष प्राप्ति का भाव रहे,
तप दान यज्ञ अपना साधें, : तत’आधारित उद्गार रहे ।
कर देते त्याग अहंता का, परमेश्वर को अर्पित रहते,
सब कार्य समर्पित उसको ही, अपने को बस निमित्त कहते।
परमेश्वर का ‘तत’ नाम यही, भजते, कर्तव्य करें अपने,
पालन उसकी ही आज्ञा का, कर रहे कार्य वे अपने
परब्रह्म नाम का द्योतक ये, यह भक्ति योग को साध रहा,
निर्देश यज्ञ का यह करता, ‘सत’ मन्त्र अमित विस्तार रहा।
तप दान यज्ञ सब सतस्वरुप, पुरुषोत्तम प्रभु के हेतु रहे,
वह मुक्त बन्धनों से होता ‘ओम तत सत’का जो जाप करे। क्रमशः….