⚡ संपादकीय ⚡
राकेश प्रजापति
गत दिवस केन्द्रीय एसटी आयोग के विधिक सलाहकार के निरिक्षण के दौरान आदिवासी अंचलों के आवासीय विद्यालयों की सच्चाई सामने आई है , और यह तस्वीर केवल गंदगी या घटिया भोजन की नहीं, बल्कि पूरे तंत्र की विफलता और भ्रष्ट संस्कृति की है। सड़े-गले भोजन, काकरोचों और गंदगी से पटी रसोई में बच्चों के लिए खाना बनना केवल लापरवाही नहीं, बल्कि बच्चों के जीवन से किया जा रहा अपराध है।
निरीक्षण में सामने आई अनियमितताओं ने यह भी साबित कर दिया है कि इन विद्यालयों के ठेके महज़ गुणवत्ता पर नहीं, बल्कि नेताओं और उनके संरक्षण में पल रहे ठेकेदारों के लिए मलाईदार कारोबार हैं। सबसे शर्मनाक स्थिति यह है कि अफसर भी इन गड़बड़ियों पर आंख मूंद लेते हैं, जांच करने से कतराते हैं। सवाल उठता है कि आखिर किस दबाव में अफसर सच छुपाते हैं और बच्चों को मौत व बीमारी की ओर धकेलते हैं?
स्थिति और भी गंभीर तब हो जाती है जब जिला प्रशासन के सर्वोच्च अधिकारी वातानुकूलित कक्षों की बैठकों में व्यस्त रहते है। लगभग रोज़ मीटिंगों का दौर चलता है, लेकिन ज़मीनी हकीकत देखने का समय किसी के पास नहीं। नतीजा यह है कि विभागीय अधिकारी और प्रधानाचार्य झूठी रिपोर्ट पेश कर अपनी जिम्मेदारी से बच निकलते हैं।
हद तो तब हो जाती है जब कलेक्टर की मीटिंग में अधीनस्थ असल सच्चाई बताने से डरते हैं।
यह पूरा तंत्र दर्शाता है कि किस तरह नेताओं, ठेकेदारों और अफसरों की मिलीभगत से सबसे कमजोर वर्ग के मासूम पिछडे, दलित ,आदिवासी बच्चे शिकार बनते हैं। सरकारी योजनाओं और घोषणाओं की आड़ में यह स्कूल विकास के मंदिर नहीं, बल्कि कुपोषण और उपेक्षा के कारखाने बन गए हैं।
अब यह केवल “सुधार का मुद्दा” नहीं रह गया है। यह सवाल जवाबदेही का है। यदि सरकार और जिला प्रशासन वास्तव में गंभीर हैं, तो
- ठेकों की पारदर्शी और स्वतंत्र जांच हो..
- दोषियों पर कड़ी कार्रवाई की जाए ..
- चाहे वे नेता हों या अफसर और जिला प्रशासन के सर्वोच्च अधिकारी मैदान पर जाकर वास्तविक हालात देखें, न कि कागज़ी रिपोर्टों पर भरोसा करें। क्योंकि जब तक जिला प्रशासन की नींद नहीं टूटेगी, तब तक बच्चों की भूख, बीमारी और उपेक्षा की यह त्रासदी जारी रहेगी।
- सवाल साफ़ है कि क्या जिला प्रशासन और विभाग प्रमुख इन बच्चों के प्रति अपना दायित्व निभाएंगे, या फिर नेताओं-ठेकेदारों की ढाल बनकर इन्हें मरते देखेंगे ?