जब जनप्रतिनिधि की साख पर ‘वर्दी की सत्ता’ हावी हो जाए — तब सुशासन सवालों के घेरे में आ जाता है”
✍️ त्वरित टिप्पणी : राकेश प्रजापति
बालाघाट के बहुचर्चित “डीएफओ बनाम विधायक” प्रकरण ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि जब किसी अधिकारी को अपने पद और अधिकार का मद चढ़ जाता है, तो वह यह भूल जाता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता द्वारा चुना गया प्रतिनिधि ही जनभावनाओं का वास्तविक स्वर होता है, न कि वह अधिकारी जिसे जनता ने नहीं बल्कि शासन ने नियुक्त किया है।
डीएफओ नेहा श्रीवास्तव द्वारा कांग्रेस विधायक अनुभा मुंजारे पर रिश्वत मांगने के आरोप लगाना और बाद में जांच में उन आरोपों का निराधार साबित होना, इस पूरी कहानी का वह हिस्सा है जिसने प्रदेश की प्रशासनिक नैतिकता पर गहरा प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।
जब वर्दी की सत्ता जनादेश पर हावी हो जाए — तब लोकतंत्र शर्मसार होता है”
हाल ही में प्रदेश के बालाघाट जिले में एक अभूतपूर्व विवाद ने शासन-प्रशासन की संवेदनशीलता और जवाबदेही पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं।
यह विवाद तब सामने आया जब उत्तर सामान्य वन मंडल की डीएफओ नेहा श्रीवास्तव ने कांग्रेस विधायक अनुभा मुंजारे पर 2 से 3 लाख रुपए (2–3 पेटी) की रिश्वत मांगने और धमकी देने के आरोप लगाए। यह मामला 16 अगस्त का बताया गया, जिसकी शिकायत डीएफओ ने पीसीसीएफ भोपाल को भेजी थी।
मामला तूल पकड़ते ही राजनीतिक हलकों में हलचल मच गई, किंतु शासन द्वारा गठित दो सदस्यीय जांच टीम — जिसमें भोपाल की एसीएफ कमोलिका मोहंतो और बैतूल की सीसीएफ वासू कन्नौजिया शामिल थीं — ने 12 सितंबर को अपनी रिपोर्ट में विधायक को निर्दोष पाया। जांच में यह स्पष्ट हुआ कि रिश्वत मांगने के कोई सबूत नहीं मिले और पूरा प्रकरण निराधार आरोपों पर आधारित था।
विधायक अनुभा मुंजारे ने इसके बाद डीएफओ श्रीवास्तव पर मानहानि का केस दायर करने की घोषणा की और कहा कि —
“यह सब मेरे खिलाफ एक सुनियोजित षड्यंत्र है। मैंने डीएफओ के पति, जो वन विभाग में पदस्थ हैं, के खिलाफ बाघ की मौत के मामले में शिकायत की थी। अब उन्हीं को बचाने के लिए मुझे बदनाम करने की कोशिश की गई है।”
जब अधिकारी जवाबदेही भूल जाएं
डीएफओ नेहा श्रीवास्तव द्वारा एक महिला विधायक पर झूठे आरोप लगाना केवल व्यक्तिगत प्रतिष्ठा पर नहीं, बल्कि लोकतंत्र की भावना पर भी प्रहार है।
यह घटना दर्शाती है कि जब कोई अधिकारी अपने कर्तव्यपथ से भटककर सत्ता और पद के दुरुपयोग में उतर जाता है, तो व्यवस्था का संतुलन डगमगा जाता है।
जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि पर निराधार आरोप लगाना भारतीय दंड संहिता की धारा 182, 211 और 500 के तहत दंडनीय अपराध है।
प्रशासनिक मर्यादा का पतन
यह मामला केवल एक झूठे आरोप तक सीमित नहीं है — बल्कि यह नौकरशाही की बढ़ती अहंकार प्रवृत्ति का उदाहरण है।
अपने पति को विभागीय लापरवाही के आरोप से बचाने के लिए किसी महिला अधिकारी का एक महिला जनप्रतिनिधि पर सार्वजनिक रूप से झूठा आरोप लगाना, न केवल घिनौना और अक्षम्य अपराध है बल्कि महिला सशक्तिकरण की अवधारणा का भी उपहास है।
प्रदेश सरकार को चाहिए कि केवल तबादला या चेतावनी पर सीमित न रहे, बल्कि इस प्रकरण को कानूनी मापदंडों के आधार पर उदाहरणात्मक सजा देकर समाप्त करे।
कानून का राज और सुशासन की नजीर
सरकार यदि वास्तव में “सुशासन” की परिकल्पना को साकार करना चाहती है, तो यह उसका दायित्व है कि ऐसे मामलों में त्वरित, निष्पक्ष और कठोर कार्रवाई सुनिश्चित करे।
जब तक शासन यह नहीं दिखाता कि “कानून के सामने कोई भी व्यक्ति बड़ा नहीं है — चाहे वह विधायक हो या आईएफएस अधिकारी”, तब तक जनता का विश्वास डगमगाता रहेगा।
बालाघाट की यह घटना हमें यह चेतावनी देती है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं की साख और प्रशासनिक व्यवस्था की मर्यादा दोनों एक साथ तभी कायम रह सकती हैं जब अधिकारी और जनप्रतिनिधि — दोनों अपने कर्तव्यों की सीमाएं समझें।
डीएफओ-आईएफएस दंपति को केवल स्थानांतरण नहीं, बल्कि कानूनी सजा दी जानी चाहिए ताकि भविष्य में कोई भी नौकरशाह “लोकतंत्र से ऊपर” होने की भूल न करे।
यही सच्चे सुशासन और कानून के राज की पहचान होगी।