ज़हरीली दवा से बुझी 21 मासूम जिंदगियाँ ..

“ पहला और आख़िरी जन्मदिन ” — ज़हरीली दवा से बुझी 21 मासूम जिंदगियाँ, अब भी सिस्टम खामोश है

✍️ विशेष विश्लेषण : राकेश प्रजापति 

बेटे का पहला जन्मदिन था।
घर में रंग-बिरंगी झालरें थीं, दीवारों पर गुब्बारे टंगे थे।
माँ ने लड्डू बनाए थे, पिता ने लाल टोपी पहनाई थी।
लेकिन शायद ईश्वर ने तय कर लिया था — यह उसका पहला और आख़िरी जन्मदिन होगा।

छिंदवाड़ा के परासिया ब्लॉक के मासूम गर्वित पवार, जो अभी एक साल का भी ठीक से नहीं हुआ था,
गुरुवार शाम पाँच बजे नागपुर के अस्पताल में अपनी अंतिम साँसें छोड़ गया।
माँ की गोद में वह सिर झुकाए हमेशा के लिए सो गया — बिना किसी शोर के, बिना किसी न्याय के।

ज़हर के नाम पर दवा — मौत के नाम पर इलाज

यह कहानी सिर्फ़ गर्वित की नहीं है,
यह मध्यप्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था की लाचारी का बयान है।
21 मासूम बच्चे अब तक इस जहरीले कफ सिरप की भेंट चढ़ चुके हैं —
वो दवा जो सर्दी–खांसी मिटाने के लिए दी गई थी,
ने उनकी किडनी को जलाकर राख कर दिया।

कौन सोच सकता था कि एक चम्मच दवा —
जो हर माँ अपने बच्चे के मुँह में प्यार से डालती है —
वही ज़हर बन जाएगी, वही उसकी जिंदगी का आख़िरी स्वाद बन जाएगी ?

कहाँ है जिम्मेदारी ? कहाँ है इंसानियत ?

इन मौतों के बाद भी प्रशासन मौन है।
न किसी डॉक्टर का पोस्टमार्टम रिपोर्ट आया,
न किसी कंपनी की फॉरेंसिक जांच सार्वजनिक हुई।
बस बयान आते रहे —
“सरकार चौकस है, मुख्यमंत्री नजर रखे हुए हैं।”

लेकिन जो माँ अपने बच्चे का शव सीने से चिपकाकर रो रही है,
उसे क्या फर्क पड़ता है कि मंत्री कौन है, जिम्मेदार कौन?
उसके लिए तो पूरा सिस्टम ही गुनहगार है।

 बचाया नहीं, बदनाम किया गया

और जब सरकार ने किसी को जिम्मेदार ठहराना चाहा,
तो अपनी नाकामी छिपाने के लिए डॉक्टर प्रवीण सोनी को जेल भेज दिया —
वो डॉक्टर जिसने सैकड़ों बच्चों की जान बचाई,
आज उन्हीं बच्चों की मौत का ठीकरा उसके सिर फोड़ दिया गया।
क्योंकि सिस्टम को दोषी नहीं चाहिए था,
बलि का बकरा चाहिए था।

 अस्पतालों में लाशें, गलियारों में खामोशी

नागपुर, छिंदवाड़ा और बैतूल के अस्पतालों में अब सिर्फ़ सिसकियाँ हैं।
हर बिस्तर पर एक कहानी है —
किसी की माँ नींद में बच्चे को थपथपा रही है,
किसी का पिता आँखों में गुस्सा और बेबसी लेकर डॉक्टरों से जवाब मांग रहा है।
लेकिन जवाब कोई नहीं देता।

क्योंकि इस राज्य में जवाबदेही नहीं, फाइलें चलती हैं।
और जब तक फाइलें चलती हैं — बच्चे मरते रहते हैं।

जब सिस्टम मैराथन में था, बच्चे मर रहे थे

मौतों का सिलसिला एक महीने से ज्यादा चला।
फिर भी जिला प्रशासन इसे “साधारण बीमारी” कहकर टालता रहा।
तत्कालीन कलेक्टर और अफसर तामिया में पर्यावरण मैराथन आयोजित करने में व्यस्त थे।
धरती बचाने निकले थे, लेकिन धरती पर बच्चों की जानें बचाने का वक्त नहीं था।

यह विडंबना नहीं, अपराध है।
क्योंकि जब प्रशासन दौड़ में हो और जनता मौत से लड़ रही हो —
तो लोकतंत्र सिर्फ़ एक मज़ाक बन जाता है।

सियासत का बेहिसाब खेल

अब मुख्यमंत्री और विपक्ष दोनों पीड़ित परिवारों से मिलने आ रहे हैं।
कोई मुआवज़े की बात करता है,
कोई इस्तीफे की मांग करता है,
कोई “नाथ परिवार” को दोष देता है,
तो कोई “मोहन सरकार” को कटघरे में खड़ा करता है।

पर सवाल यह है —
क्या किसी नेता ने यह पूछा कि बच्चों की जान किसने ली?
कौन-सी लैब ने दवा टेस्ट की?
और किस अधिकारी ने अनुमति दी?

नहीं।
क्योंकि राजनीति में जवाब नहीं, सिर्फ़ कैमरे मायने रखते हैं।

⚖️ कानूनी विश्लेषण : अपराधी कौन, पीड़ित कौन ?

इन मौतों के लिए कई कानूनी स्तरों पर ज़िम्मेदारियाँ बनती हैं—

  • IPC की धारा 304A (लापरवाही से मृत्यु)

  • Drugs and Cosmetics Act, 1940 की धारा 18 (खतरनाक दवा का वितरण)

  • CrPC 174 (संदिग्ध मृत्यु पर पोस्टमार्टम का अनिवार्य प्रावधान)

अगर इन धाराओं का ईमानदारी से पालन होता,
तो शायद ये 21 नहीं, 21 मुस्कानें ज़िंदा होतीं।

 अब यह सिर्फ़ मौत नहीं, एक सबक है

इन मासूमों ने किसी का नुकसान नहीं किया था,
वे बस दवा पर भरोसा कर बैठे थे।
और उस भरोसे को सत्ता, सिस्टम और सियासत — तीनों ने मिलकर मार दिया।

आज हर माँ के मन में एक डर है —
“अब किस पर भरोसा करें?”
और हर पिता के दिल में एक सवाल —
“क्या मेरा बच्चा सिर्फ़ एक आंकड़ा बनकर रह जाएगा?”

अंत में : यह आँकड़े नहीं, अधूरे सपने हैं

गर्वित पवार की तस्वीर अब हर अख़बार में है —
छोटा लाल पगड़ी वाला चेहरा, जिसकी मुस्कान अब केवल कागज़ पर बची है।
यह चेहरा उस हर बच्चे की आवाज़ है जो दवा के नाम पर ज़हर पी गया।

जब तक सरकार हर मौत का पोस्टमार्टम नहीं कराती,
हर दोषी को सज़ा नहीं देती,
और हर माँ को न्याय नहीं दिलाती —
तब तक यह मामला केवल “सिरप कांड” नहीं,
“सिस्टम कांड” कहलाएगा।