परंपरागत गरबा में आधुनिकता का समावेश ..

नवरात्रि का पर्व केवल धार्मिक आस्था का नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और लोकजीवन की जीवंतता का भी प्रतीक है। इस पर्व की आत्मा गरबा नृत्य में निहित है। गरबा का मूल स्वरूप देवी की आराधना और सामूहिक उत्सव का रहा है, जहाँ ताल, लय और परिक्रमा के माध्यम से भक्तजन माँ शक्ति के प्रति अपनी भक्ति अर्पित करते रहे हैं। यह परंपरा सदियों से गुजरात ही नहीं, पूरे भारत और अब तो विश्वभर में भारतीय संस्कृति की पहचान बन चुकी है…. राकेश प्रजापति 

समय के साथ हर परंपरा पर आधुनिकता का प्रभाव स्वाभाविक है। गरबा भी इससे अछूता नहीं रहा। अब इसमें पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ डीजे, इलेक्ट्रॉनिक संगीत और फिल्मी धुनों का समावेश हो चुका है। मंच सज्जा, रंगीन लाइटें और आकर्षक साउंड सिस्टम ने इसे अधिक भव्य रूप प्रदान किया है। चनिया-चोली के पारंपरिक परिधान आज भी अपनी जगह बनाए हुए हैं, लेकिन डिज़ाइनर टच और फैशन का मेल इसे और आधुनिक रूप देता है। युवा पीढ़ी उत्साहपूर्वक इसमें भाग ले रही है, जिससे इसकी लोकप्रियता राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बढ़ी है।

यह निश्चय ही गर्व की बात है कि गरबा भारतीय संस्कृति का वैश्विक दूत बन चुका है। विदेशों में भी इसकी गूँज सुनाई देती है और भारतीयता की पहचान गरबा के माध्यम से और सशक्त होती है। किंतु यहाँ एक गंभीर प्रश्न भी उठता है—क्या इस आधुनिकता की दौड़ में हम इसकी आत्मा को कहीं खो तो नहीं रहे ? गरबा केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि देवी की उपासना और लोक-संस्कृति का जीवंत प्रतीक है। यदि इसमें भक्ति का भाव क्षीण हो गया, तो यह केवल नृत्य और फैशन का प्रदर्शन बनकर रह जाएगा।

आज आवश्यकता इस संतुलन की है कि आधुनिक साधनों का उपयोग करते हुए भी परंपरा की गरिमा अक्षुण्ण रखी जाए। तकनीकी और प्रस्तुति की चमक-दमक अपनी जगह है, परंतु गरबा की पहचान उसकी सामूहिकता, भक्ति और सांस्कृतिक जड़ों से है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि आने वाली पीढ़ियाँ गरबा को केवल एक आधुनिक उत्सव के रूप में न देखें, बल्कि उसकी आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक गहराई को भी महसूस करें।

यही संतुलन परंपरा और आधुनिकता का सच्चा समावेश कहलाएगा।