
अठारहवाँ अध्याय : मोक्ष-सन्यास योग
तप, दान, यज्ञ, व्रत कर्मो का, होता है त्याग न उचित कभी,
इनका पालन कर्तव्य रहा, करना होता कर्तव्य सही।
तपदान यज्ञ वे कर्म रहे, परमार्थ मार्ग जिनसे खुलता,
जो रहे मनीषी उनका मन, इन कर्मों से निर्मल बनता।-5
यज्ञादिक कर्मों को अर्जुन, आसक्ति रहित सम्पन्न करे,
समझे कर्तव्य उसे अपना, मन में फल की इच्छा न रखें।
सात्विक कर्मों को करने से, मन में बढ़ती है सात्विकता,
होता है अन्तःकरण शुद्ध, जीवात्मा आत्मोन्नति करता।-6
जो शास्त्र विहित कर्तव्य रहे, इनका न कभी त्याग करे,
वे नियत कर्म उनका पालन, हो सहज भाव सम्पन्न करे।
परित्याग न उन क्रियाओं का रे कभी जीव को उचित रहा,
जो त्याग मोहवश किया गया, वह त्याग तामसी त्याग रहा।-7
दुखमय है कार्य समझ ऐसा, जो मनुज कर्म का त्याग करे,
या क्लेश देह को देता है, यह सोच मनुज जो कर्म तजे।
वह त्याग राजसी रहा पार्थ, उसको न त्याग का फल मिलता,
दुखमय फल रहता राजस का, जो उस त्यागी के संग फलता।-8
पर हे अर्जुन जिस मानव ने, कर्तापन का अभिमान तजा,
कर्तव्य समझकर कर्म किया, अरू फल का मोह विचार तजा।
वह कर्म गुणों से ही असंग, कर रहा कर्म पर है त्यागी,
यह सात्विक त्याग रहा उसका, वह दिव्य कर्म का अनुरागी।-9 क्रमशः ….