
सत्रहवाँ अध्याय : श्रद्धात्रय-विभाग योग (श्रद्धा के तीन भेद)
विधि यज्ञ दान या तप की हो, प्रारंभ मन्त्र से की जावे,
‘ओम तत सत’ के उच्चारण से दिव्योपलब्धि बरबस आये।
क्रियायें दिव्य इन्हें अर्जुन, भव बन्धन मुक्ति हेतु करते
इसमें कोई सन्देह नहीं, पाते विभुक्ति जो जप करते।-25
परब्रह्म का नाम द्योतक ये, यह भक्ति योग को साध रहा,
निर्देश यज्ञ का वह करता ‘सत’ शब्द सभी को बाँध रहा।
तप दान यज्ञ सब सत्स्वरूप पुरुषोत्तम प्रभु के हेतु रहे,
वह मुक्त बन्धनों से होता, ‘ओम तत सत’ का जो जाप करें।-26
सम्पूर्ण यज्ञ का परम, लक्ष्य ‘ओम तत सत’ का आह्वान करे,
क्रियायें सिद्ध सभी होती, ‘ओम तत सत’ का ही गान करे।
हर भांति पूर्णता पा जाते, ‘ओम तत सत’ का कर परायण,
वह परम स्वरूप दिव्य मिलता, ‘ओम तत सत’ का जो करे वरण।-27
लेकिन अर्जुन श्रद्धा के बिन, रहते ये कर्म असत सारे,
श्रद्धा बिन किया यज्ञ निष्फल, है व्यर्थ दान तप व्रत सारे।
फल यज्ञ दान तप का उनको, मिलता न यहाँ इस जीवन में,
ये कर्म न उनके सफल हुये, लोकान्तर में जीवान्तर में।-28
॥ इति सप्तदशम अध्याय ॥