
सोलहवाँ अध्याय ..देवासुर-सम्पत्ति-विभाग योग (देवी और असुरी स्वभाव)
श्री भगवानुवाच :-
मेरा कुटुम्ब है बहुत बड़ा, धन धान्य अतुल ऐश्वर्य रहा,
मेरे जैसा न सुखी कोई, कोई न तुल्य बलवान रहा।
मैं यज्ञ करूंगा बहुत बड़ा, मुझसे याचक धन पायेंगे,
आनंद मनाऊँगा इतना, सब चकित देख जल जायेंगे।-15
इस तरह विकल्प विविध रचते, चिन्ता करते बहुत भाँति असुर,
रच मोह जाल फँसते उसमें, जिससे न उबरते कभी असुर।
वे भ्रमित चित्त विषयानुरक्त, विषयों का ही करते चिन्तन,
अपने कर्मो का फल पाते, पाते हैं नरक न रूके पतन।-16
माने अपने को सर्वश्रेष्ठ, व्यवहार अशिष्ट करे सबसे,
धन और मान के मदमाते, वे अन्धे कुछ न देख सकते।
करते पूजन वे यज्ञ रचे, पाखण्ड बहुत वे फैलाये,
विधि विहित न कोई काम करे, प्रतिकूल विधानों के जायें।-17
वे अहंकार के वशीभूत, करते निरस्त प्रभु की सत्ता,
बल काम, क्रोध, मद, दर्प मिले, सबका अपूर्व आसव पकता ।
परमेश्वर जो सबमें बसता, वे उस प्रभु से विद्वेष करें,
वे मेरी निन्दा करें पार्थ, वे धर्म विरोधी काम करे।-18
विद्वेषी असुर नराधम वे, करते हैं अपनी मनमानी,
उनकी भावी गति क्या होती, यह रहती उनको अनजानी।
जो क्रूर कर्म जो दुराचार, करते वे उसका फल पाते,
पुनि असुर योनियों में गिरते, भव सागर पार न कर पाते।-19 क्रमशः ….