
सोलहवाँ अध्याय ..देवासुर-सम्पत्ति-विभाग योग (देवी और असुरी स्वभाव)
श्री भगवानुवाच :-
वे विषय भोग में लिप्त रहे, इच्छाओं का विस्तार रहा,
अनुरक्ति कामिनी-कांचन में, शुचिता का पूर्ण अभाव रहा।
मदिरापायी वे दर्प जनित, मिथ्याभिमान में चूर रहे,
दूषित कर्मों को करने वे, मन वाणी से मजबूर रहे।-10
वे मान रहे जीवन उनको, सुख भोग तृप्ति के लिये बना,
वे चाह रहे अन्तिम क्षण तक, अपनी इन्द्रियाँ तृप्त करना।
विस्तार रहा चिन्ताओं का, भोगाग्नि न होती शान्त कभी,
अतृप्त वासना चिन्ता में, जलते रहते वे असुर सभी।-11
आशायें लेकर वे हजार, बन्धन पर बन्धन बाँध रहे,
वे काम क्रोध में मते हुये, सीमायें सारी लाँध रहे।
धन संचय करने भोग हेतु, करते अन्याय बहुत कामी,
परिणाम न देख सकें अपना वे स्वेच्छाचारी अभिमानी।-12
आसुरी प्रकति वाले निशिदिन, रे दिवास्वप्न देखा करते,
अज्ञान जनित वे आत्ममुग्ध, सम्मोहित अपने से रहते।
धन आज प्राप्त पर्याप्त किया, कल इसको और बढ़ाऊँगा,
हो गया मनोरथ आज पूर्ण, दुगुना तिगुना कर लाऊँगा।-13
वह मारा गया शत्रु मेरा, अन्यान्य उन्हें भी मारूँगा,
मैं ही हूँ रे जग का ईश्वर, होगा जैसा मैं चाहूँगा।
मैं माँग रहा ये सभी भोग, मैं भोक्ता हूँ मैं सिद्ध पुरुष,
बलवान अकेला मैं ही हूँ, मुझ जैसा सुखी न अन्य पुरुष।-14 क्रमशः….