
चौदहवाँ अध्याय गुणत्रय-विभाग योग (त्रिगुणमयी माया)
सतगुणी पुरुष जब देह तजे, स्वर्गदिक लोको में जाते,
पर रजोगुणी मरकर फिर से, इस मृत्युलोक में ही आते।
नरकों में गिरते जाते हैं जो तमोगुणी पुनि पुनि गिरकर
जो चाहे वह उद्धार करे, अपने गुण से ऊपर उठकर।-18
तीनों गुण में सब कर्म बँटे, आवर्तन गुण का है गुण मे,
जिस समय तुझे यह दीखेगा, कर्ता न रहा कोई इनमें।
अरू देखेगा परमेश्वर को, इन सभी गुणों से परे पार्थ,
मेरी है परा प्रकृति कैसी, उस क्षण होगा तू इसे प्राप्त।-19
इस जीवन में ही जीवात्मा, अमरत्व प्राप्त करता अर्जुन,
वह जन्म मृत्यु वृद्धावस्था, जग के दुःख से हो मुक्त अमन।
जब देह-जन्म के कारण ये, गुण तीन प्रकृति के वह लांघे,
अरू शुद्ध सत्व में निष्ठा हुआ, अपने में तत्व ज्ञान साधे।-20
अर्जुन उवाच :-
तब अर्जुन ने की जिज्ञासा हे प्रभो पुरुष के क्या लक्षण ?
किस तरह आचरण वह करता, जो लांघ चुका हो तीनो गुण ?
होना अतीत तीनों गुण से, किस साधन से संभव करता ?
बतलायें प्रभु वह गुणातीत, कैसे बनता, किससे बनता ?-21
श्री भगवानुवाच :-
जीवात्मा प्राकृत देहबद्ध, आधीन रहे माया-गुण के,
व्यापार सभी जग जीवन के, गुण के आश्रित होकर चलते।
हे अर्जुन पाये वह प्रकाश, अथवा प्रवृत्ति या मोह मिले,
लेकिन जो पुरुष न माया के, इन गुण से कोई द्वेष करे।-22
इच्छा न करे निवृत्ति हेतु रहकर उनमें ज्यों उदासीन,
कर रहे कार्य अपना सब गुण, यह समझे स्थिर मति प्रवीण।
सुख दुख में सदा समान रहे, आकर्षित हो न विकर्षित हो,
समबुद्धि रहे उसके आगे, मिट्टी पत्थर या कंचन हो।-23 क्रमशः….