
तेरहवाँ अध्याय : प्रकति-पुरुष-विवेक योग
जो रहा जानने योग्य ज्ञेय, उसके बारे में बतलाऊँ,
क्षेत्रज्ञ जीव, क्षेत्रज्ञ विभू, उनका अन्तर मैं समझाऊँ।
यह ज्ञानामृत आस्वादन का, दोनों अनादि आश्रित मेरे,
हैं परे कार्य-कारण के वे, है जीव ब्रह्म आश्रित मेरे।-12
उस परमात्मा के हाथ पैर, मुख कान नेत्र सब ओर रहें
परिव्याप्त किये अग जग को वह, सारे जग में वह व्याप्त रहे।
परमात्मा के आश्रय में ही, रहते हैं जीव कि जीवात्मा,
परमेश्वर सीमा रहित रहा, पर सीमित रहता जीवात्मा।-13
गोचर का मूल स्त्रोत होकर, वह रहित इन्द्रियों से रहता,
पालक वह सभी प्राणियों का, लेकिन वह निरासक्त रहता।
वह परे गुणों से माया के, फिर भी है वह स्वामी उनका,
प्राकृत उसका आकार नहीं पर संरक्षक है वह सबका।-14
वह परम सत्यनारायण प्रभु, सर्वत्र व्याप्त बाहर भीतर,
सूक्ष्मातिसूक्ष्म ओझल रहता, वह परे इन्द्रियों के जीकर।
बैकुण्ठ वास करने वाला, रहता है वह अत्यन्त दूर,
फिर भी अत्यन्त निकट सबके, उनके जो लेते उसे ढूँढ।-15
वह अलग अलग सब जीवों में, लगता है पृथक पृथक बसता,
पर परमात्मा अविभाज्य रहा, वह पूर्ण विभाग रहित रहता।
सम्पूर्ण प्राणियों का पालक, वह रहा जन्मदाता सबका,
संहार वही सबका करता, वह ही है उद्धारक सबका।-16
ज्योतिर्वानों का ज्योति स्त्रोत, माया के तम से परे रहे,
प्राकृत जग में वह ब्रह्म ज्योति, नित महतत्व से ढँकी रहे।
इसलिये अगोचर परमात्मा घट घट वासी अन्तर्यामी,
वह ज्ञान रूप वह ज्ञेय रहा, पा लेता उसे तत्वज्ञानी।-17 क्रमशः…