
बारहवाँ अध्याय : भक्ति-योग (श्री भगवान की प्रेममयी सेवा)
यदि इतना भी कर सके नहीं, तो ज्ञान हेतु अनुशीलन कर,
रे ध्यान ज्ञान से श्रेष्ठ रहा, अतएव, ध्यान का पालन कर।
पर ध्यान योग से भी उत्तम, कर्मो के फल का त्याग पार्थ,
मिलती है मन को शान्ति परम, जब त्याग भाव आये यथार्थ।-12
जो द्वेष भाव से रहित रहा, निस्वार्थ मित्र सब का जो जन,
सबके प्रति भाव उदार रखे, जो रहा कृपामय मित्र परम।
जो अहंकार से रहित रहा, ममता न देह के प्रति जिसकी,
सुख-दुख में जो रहता समान, हो प्रकृति क्षमाशील जिसकी।-13
मन में जिसके सन्तोष सदा, जो हानि-लाभ में रहता सम,
विचलित न कभी दृढ़ निश्चय से, हो भक्ति भाव में संयत मन।
मनबुद्धि चित्त जिसने अपना, कर दिया समर्पित मुझको तन,
मेरा अनन्य वह भक्त रहा, मुझको वह अतिशय प्रिय अर्जुन।-14
जिसके कारण न दुखी कोई देता न किसी को कष्ट कभी,
पाता न दूसरे से जो दुःख, अपना प्रिय जिसको कहे सभी।
जिसको न प्रभावित हर्ष करे, उद्वेग शोक से दुखी नहीं,
आवेगों से न प्रभावित जो, प्रिय होता मुझको भक्त वहीं।-15
स्पृहा रहित जिसके मन में, रहती न अपेक्षा प्रतिफल की,
जो हो पवित्र बाहर भीतर, हो व्याप्ति नहीं जिसको दुःख की।
जो कुशल रहा आसक्ति रहित, वह अनासक्त वह उदासीन,
वह फलासक्ति से रहित भक्त, मुझको अति प्रिय वह जन प्रवीण।-16 क्रमशः…