श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 55 वी कड़ी ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 55 वी कड़ी ..                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                         

पाँचवा अध्याय  : – कर्म-सन्यास योग (कृष्ण भावना भावित कर्म)                                                                                                        

मुक्त द्वैत से संशय से है आत्म परायण चित्त जिसका,

हर भाँति पाप से रहित रहें, जग के हित में रत मन जिनका।

सम्पूर्ण प्राणियों के सुख की, सुविधा में जो संलग्न रहे वे रहे,

मुक्ति के अधिकारी, वे ज्ञानी जीवन्मुक्त रहे।-25

 

जो काम-क्रोध से मुक्त रहे, निज आत्मरूप जिनने जाना,

जो आत्म संयमी है योगी, संसिद्धि हेतु पहिना बाना।

अविराम प्रयत्नशील रहकर, परमार्थ जिन्होंने प्राप्त किया,

सब ओर परमगति मिली उन्हें, प्रभु ने उनको निजधाम दिया।-26

 

जितने भी इन्दिय विषय रहे, उन सबका बाहर त्याग करे,

भृकुटी के मध्य दृष्टि रखकर, अधौन्मीलित फिर नेत्र रखे।

नासाग्र ध्यान के साधन से, साधे वह श्वास प्रक्रिया को,

समता में प्राणपान करें, पाले कि योग की चर्या को।-27

 

संसिद्धि योग में प्राप्त करे, वश में हो चित्त इन्द्रियाँ हों

वश में हो बुद्धि योग द्वारा, जाग्रत हो गई अतिन्द्रियाँ हों।

इच्छा न रहे न रहे फिर भय, मन में न क्रोध का वास रहे,

यह दशा कि जीवन्मुक्त दशा, जिसमें प्रभु का नित साथ रहे।-28

 

सम्पूर्ण यज्ञ तप का मुझको, योगीजन भोक्ता मान रहे

तीनो लोको का देवो का, परमेश्वर मुझको जान रहे

त्राता जग के सब जीवों का,ऋषि जन मुझको है बतलाते

संसार दुःखों से निवृत्ति पा वे,शान्ति रूप मुझको पाते।-29

॥ इति पंचम अध्याय ॥