श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 51 वी कड़ी .. 

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 51 वी कड़ी ..                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                         

पाँचवा अध्याय  : – कर्म-सन्यास योग (कृष्ण भावना भावित कर्म)                                                                                                        

पर महाबाहु बिन भक्ति योग, सन्यास कर्म है बहुत कठिन,

सुख प्राप्त न उससे हो पाता, नीरस बन रह जाता जीवन।

पर भक्ति भाव भाषित होकर, ऋषिजन विशुद्ध हो कर्म करें,

परब्रहा रूप परमात्मा को, वे कर्मयोग से प्राप्त करें।-6

 

जिसका मन है अपने वश में, है अन्तःकरण शुद्ध जिसका,

जो इन्द्रिय-विजयी पुरुष पार्थ, नित जाग्रत जीवात्मा जिसका।

जिसको सब प्राणी प्रिय होते, जो रहा प्राणियों का प्रिय बन,

वह कर्म निरत रहता फिर भी, उसको न कर्म का कुछ बन्धन।-7

 

वह देख रहा पर अन देखे, सुनता है वह पर सुने नहीं,

छू रहा मगर वह नहीं हुए छुए, सूँघे वह सूँघे किन्तु नहीं।

वह खाता, खाता नहीं स्वयं, करता है गमन, न गमन करे,

देखे वह स्वप्न न देखे पर, श्वासा ले किन्तु न श्वास भरे।-8

 

वह बात करे पर रहे मौन, वह त्याग रहा पर कुछ न तजे,

वह ग्रहण करे, गहे न कुछ, वह पट खोले या बन्द करे,

अन्तर में उसके ध्यान सदा, इन्द्रिय सम्पादित कर्म सभी,

हो रहे कर्म पर कर्मों का, कर्ता है कोई अन्य कहीं।

 

अर्पित कर्मो का फल प्रभु को करता करता स्वधर्म पालन,

आसक्ति रहित जो कर्म करे, कर्मो का होता परिमार्जन ।

उसको न पाप लगता कोई, वह जल में कमल पत्र जैसा,

जल-कण न पत्र पर ठहर सके, जल में रह लिप्त नहीं रहता।-10   क्रमशः…