‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 260 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 260 वी कड़ी..                      अष्टादशोऽध्यायः- ‘मोक्ष सन्यास योग’
‘निष्कर्ष योग’ समस्त अध्यायों का सार संग्रह । मोक्ष के उपायभूत सांख्ययोग (सन्यास) कर्मयोग (त्याग) का अंग प्रत्यंगों सहित वर्णन ।

श्लोक  (६४)

अति गोपनीय से भी बढ़कर, जो गोपनीय मम सार वचन

तेरे प्रति फिर दुहराता हूँ, दे ध्यान उन्हें तू फिर से सुन

तू मुझको है अतिशय प्यारा, इसलिए चाहता हित तेरा

मेरा नित चिन्तन मनन रहे, कल्याण सदा होगा तेरा ।

श्लोक  (६५)

तू भक्ति भावना भावित हो, मेरा पूजन अरु वंदन कर,

मेरी गीता का सार रहा, तू कर्म समर्पित मुझको कर ।

तू मेरा प्रियतम सखा रहा, यह सत्य प्रतिज्ञा है मेरी

तू पूर्ण काम हो जायेगा, तू प्राप्त करेगा मुझको ही ।

 

तू सबसे प्रिय मुझको अर्जुन, सुन तेरे हित की बात कहूँ,

यह सबसे अधिक रहस्यपूर्ण, जो शब्दों में अभिव्यक्त करूँ ।

मुझमें अपना मन सुस्थिर कर, तू मेरा अटल-भक्त बन जा,

कर मेरे लिए यज्ञ-याजन, तू कर प्रणाम, अर्पित हो जा ।

 

मुझको अवश्य तू पा लेगा, यह मेरा वचन रहा तुझको,

कुछ भी न दुराव रहा तुझसे प्रिय सदा भक्त होता मुझको ।

जो आत्म समर्पण करता है, अविचल आस्था रखता मुझमें,

तेरे हाथों में सौंप रहा, हे देव, मात्र तेरा बनने ।

 

लाने को अपने निकट हमें, उत्सुक रहता परमात्मा भी,

अपना स्वभाव वह प्रगट करे, दे अपना प्रेम, दयालुता भी ।

वह करे प्रतीक्षा खड़ा, खड़ा, कब हम अपना उर-पट खोलें,

वह समा सके उर-अन्तस में, परिपूरित हम उससे होलें ।

 

आत्मिक जीवन उस तक पहुंचे, निर्भर हम पर, निर्भर उस पर,

हम उस तक आरोहण करते, अवरोहण वह करता हम पर ।

वह सुन पुकार, पा खुला हृदय, आ अन्तस में भर जाता है,

पदचाप नहीं हम सुन पाते, वह रग-रग में खिल जाता है।

 

वह बन्द कपाटों के बाहर अनवरत प्रतीक्षा रत रहता,

खुलते कपाट उर के जिस क्षण, वह अन्तस में प्रवेश करता ।

देता सहायता बढ़ आगे, सुनता वह जब अपनी पुकार,

भक्तों कोगले लगा लेता, अपने प्रण का करता निबाह ।

 

अपनी श्रद्धा, अपने विचार, अपनी पूजा, सब यज्ञ कर्म,

परमात्मा से जोड़ें विनम्र, यह रहा हमारा प्रथम धर्म ।

ले सरल हृदय, विश्वास अडिग, उसके अर्पित जो हो जाते,

अर्जुन वे दयासिन्धु प्रभु की, शरणागति का प्रसाद पाते ।

 

अपने सारे व्यवहारों का, मुझ सर्व व्याप्त को विषय बना,

रह सके न द्वैत भाव मन में, तू मुझसे ऐसी लगन लगा ।

मेरी प्रसन्नता का अर्जुन, हो जायेगा तू अधिकारी,

होगा स्वरुप को प्राप्त, हटेगी रे मन से दुविधा सारी ।। क्रमशः…