
श्लोक (५७)
हे अर्जुन अपने कर्म सभी, मुझको अनन्य हो अर्पण कर,
मेरे प्रति पूर्ण समर्पित हो, तू भक्ति योग का पालन कर ।
अविनन्तर मेरा ध्यान किए, अपने कर्तव्य निभाता चल,
हो पूर्ण परायण मेरे तू, जीवन को सफल बनाता चल ।
अपने सब कर्म समर्पित कर, मुझको भगवान समझ अर्जुन,
दृढ़ता पूर्वक मति मुझमें रख, मुझमें एकाग्र किए चल मन ।
मन से, संकल्प, चेतना से, जुड़कर, कर्तव्य किए जा तू,
इस भक्ति योग के पालन से, निज का कल्याण करेगा तू ।
अर्जुन तुम ऐसा यत्न करो, त्यागे मन अपनी चंचलता,
मुझमें एकाग्र चित्त होवे, मेरा ही सतत भजन करता ।
ऐसी अनन्य यह भक्ति साध, हो जाओ मुक्त अविद्या से,
अपने कर्तव्य करो पूरे, मुझको उर में धारण करके
होती न दूर तन से छाया, त्यों प्रकृति पुरुष का साथ रहा,
यह ज्ञान अविद्या दूर करे, यह कर्मो से सन्यास रहा ।
आत्मा में रहती लीन बुद्धि, मुझमें अपने को देखोगे,
कर्मो की जननी प्रकृति उसे, तुम नहीं आत्मवत लेखोगे ।
हो सिद्धि-असिद्धि कि सुख-दुख हो, हो हानि लाभ कुछ भी हो,
इच्छा से प्रभु की होता है, इसलिए न मन में विचलित हो ।
यह बुद्धि योग समभाव रखे, हे कौन्तेय, कर अवलम्बन,
तू ध्यान हटा सारे जग से, हो जा बस मेरे पारायण ।
सोते-जगते, खाते-पीते, चलते-फिरते तू भज मुझको,
मुझमें ही अपनी बुद्धि लगा, मन में धारण कर तू मुझको ।
सब कर्म मुझे ही अर्पित कर, मुझमें ही तेरा चित्त रहे,
तू अपना जो भी कर्म करे, वह कर्म न तेरा कर्म रहे । क्रमशः….