
श्लोक (५४)
अनुभूति परात्पर की होती, जब ब्रह्मभूत मानव होता,
वह करता कोई शोक नहीं, इच्छाओं का विगलन होता ।
जगता समभाव प्राणियों में, देहात्मबुद्धि सब गल जाती,
पाता वह मेरा भक्तियोग, यह दशा मनुज की जब आती ।
हो एकाकार ब्रह्म से वह, जब बन रहता आत्मा प्रसन्न,
होता न शोक कोई उसको, इच्छा न करे वह रह अनन्य ।
समभाव रखे वह जीवों में, सर्वोच्च भक्ति मेरी पाता,
अज्ञान ज्ञान न कुछ बचता, सब लीन उसी में हो जाता ।
निर्गुण स्वरुप में ब्रह्म रुप, निष्क्रिय होने का भाव नहीं,
यह भक्ति रही सर्वोच्च पार्थ, जिसमें प्रभु की अनुभूति रही।
यह भक्ति परम चैतन्य बोध, चल अचल सभी को जोड़ रखे,
परमात्मा तत्व की ओर सकल, जग की हलचल को मोड़ चले।
रुक जाते साजबाज सारे, जब बंद गान हो जाता है
या शरद ऋतु में सरिता जल, जिस तरह शान्त हो जाता है |
पाता प्रसन्नता आत्मा की, साधक जब होता ब्रह्मभूत
निस्सार छूट जाते पीछे, सुख-भोगों के साधन अकूत |
जो भक्त मुझे जैसा भजता, मैं उसको वैसा बनता हूँ,
मेरा ही चित-प्रकाश सारा जिससे दिखलाई देता हूँ ।
मेरा प्रकाश यह सहज इसे, कहते हैं उत्तम भक्ति पार्थ
अपने अनुकूल ढाल लेता है, मुझको मेरा भक्त आर्त ।
होता न क्षुब्ध प्रसन्नात्मा, जो ब्रह्म भाव को प्राप्त हुआ,
सर्वत्र एक सत्ता में ही, रहता है उसका बोध जगा ।
रहती न ब्रह्म से भिन्न दृष्टि, वह राग द्वेष से परे रहे,
वह श्रेष्ठ भक्त मेरा अर्जुन, जिसमें समदर्शी भाव जगे ।
श्लोक (५५)
मुझ पुरुषोत्तम का क्या स्वरुप, क्या तत्व वही जन जान सके,
जो भक्तियोग मेरा पाकर, मुझको तात्विक पहिचान सके ।
पहिचान लिया जिसने मुझको, या पूर्ण रुप से जान लिया,
वैकुष्ठ जगत में कर प्रवेश, उसने मेरा तादात्म्य किया ।
वह भक्तिभाव से जान सके, मैं हूँ यथार्थ में कौन पार्थ,
मैं कितना हूँ कि मैं कैसा हूँ, वह जान सके मेरा यथार्थ ।
मुझमें प्रवेश करने पाता, वह तत्व रुप पहिचान मुझे,
रे रहे ज्ञान या भक्तिमार्ग, दोनों ये रहे समान मुझे ।
होता स्वरुप का ज्ञान उसे, परमात्मा उसको मिल जाता,
पा जाता रविकर परस पद्म, पखुरी पखुरी वह खिल जाता ।
व्यवधान न कोई पड़ता है, वह पाता प्रभु को ज्ञान साथ,
परमात्मा में करके प्रवेश, वह उनमें ही करता निवास
साधक अपना कर परा भक्ति, पा जाता मुझ परमात्मा को,
वह तत्व रुप से जान सके, मैं कैसा क्या, मुझ आत्मा को।
ममगत होकर ममरुप हुआ, इसमें न तनिक अन्तर पड़ता
जैसा भी वह जीवन जीता, उसमें मेरा अनुभव करता । क्रमशः….