‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 253 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 253 वी कड़ी..                      अष्टादशोऽध्यायः- ‘मोक्ष सन्यास योग’
‘निष्कर्ष योग’ समस्त अध्यायों का सार संग्रह । मोक्ष के उपायभूत सांख्ययोग (सन्यास) कर्मयोग (त्याग) का अंग प्रत्यंगों सहित वर्णन ।

श्लोक  (५१-५२-५३)

जो रखे विशुद्ध बुद्धि अपनी, जो सहज सरल बोले प्राणी,

सात्विक सादा भोजन करता, शब्दादि विषय का जो त्यागी।

एकान्त चुने वह शुद्ध देश, सात्विकता का करता पालन,

संयम मन वाणी तन पर कर, वैराग्य अटल करता धारण ।

 

रखता न किसी से राग द्वेष, जीते वह अपना अहंकार,

वह काम क्रोध मद को छोड़े, कर ले मन वह परिष्कार ।

सारे परिग्रह छोड़े अपने, कर चले सतत प्रभु का चिन्तन,

वह ब्रह्मप्राप्ति का पात्र बने, निर्मल प्रशांत वह अविचल मन

 

पूर्वार्जित पापों से विमुक्त, हो अन्तःकरण शुद्ध जिसका,

युक्ताहारी विहार युक्त, अपना न पराया हो जिसका ।

देहाभिमान का त्याग किए, अपने बल का न घमण्ड करे,

वह काम क्रोध परिग्रह छोड़े, वह ममता रहित प्रसन्न रहे।

 

पहिचाने आत्मा का स्वरुप, मन को उस पर एकाग्र करे,

यह ध्यान योग, वैराग्य वृत्ति, इनको दृढ़तापूर्वक पाले ।

पाना चाहे पद परम उसे, दुख रहे न सब कुछ तजने का,

त्रिभुवन का राज्य मिले फिर भी, हो गर्व न अधिपति बनने का।

 

समभाव रखे, न द्वेष पाले, बहके न प्रशंसा को सुनकर,

प्रभु का बनकर उपकरण रहे, प्रभु को नित मन में धारण कर ।

वह निर्विकार, वह शांत चित्त, ब्रह्म से एकाकार करे

मैं स्वयं सच्चिदानंद ब्रह्म, उसके मन में यह बोध जगे ।

 

साधक का मार्ग रोकने को, बहु शत्रु दोष रुपी आते,

पहिला है तन का अहंकार, जिसके न किले ढहने पाते ।

विषयों का शत्रु सबल होता, विष की दह, दोषों का राजा,

वह सुख का खोल ओढ़ लेता, अच्छे अच्छों को भरमाता ।

 

भटकाता है सत्पथ से जो, वह ‘दर्प’दोष अगला अर्जुन,

विश्वास घात करता रहता, किसको न जला दे क्रोध अगन ।

है काम नाम का दोष प्रबल, वह सर्वनाश करके रहता,

सिर पर चढ़कर रहता परिग्रह अति सूक्ष्म पाश इसका दहता।

 

इन दोष शत्रुओं से भिड़कर, करके परास्त बढ़ना होता,

निर्मल मति करना होती है, विषयों को भी तजना होता ।

दोषों को दूर हटा पथ से, पाना होता है आत्मज्ञान,

वह ब्रह्मभूत होता अर्जुन, जिसमें न रहे देहाभिमान । क्रमशः….