‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 249 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 249 वी कड़ी..                      अष्टादशोऽध्यायः- ‘मोक्ष सन्यास योग’
‘निष्कर्ष योग’ समस्त अध्यायों का सार संग्रह । मोक्ष के उपायभूत सांख्ययोग (सन्यास) कर्मयोग (त्याग) का अंग प्रत्यंगों सहित वर्णन ।

श्लोक  (४५)

अपने-अपने गुण धर्म निभा, संसिद्धि प्राप्त जन कर लेते,

संलग्न कर्म में अपने रह, निज आत्मोन्नति का पथ गहते ।

अपने स्वभाव में रहकर ही, वे अपना आत्मोन्नयन करें,

अपनी सीमा में सिद्धि मिले, यह सहज ज्ञान, इसको समझें ।

 

अपने कामों को निष्ठा से, जो पूर्ण किया करता अर्जुन,

वह प्राप्त पूर्णत करता है, मर्यादा का करके पालन ।

अपने स्वभाव के भीतर रह, संसिद्धि प्राप्त वह कर लेता,

लेकिन वह अपना अहित करे, जो अन्य वर्ण में रुचि लेता।

 

ब्राम्हण कर धार्मिक अनुष्ठान, जिस तरह परम पद पाता है,

उस पद को शूद्र प्राप्त करता, यदि अपने कर्म निभाता है।

हर एक पुरुष अधिकारी है, वर्णों का वहाँ न भेद रहे

जिसका जो वर्ण रहा उसमें, रहकर वह अपने कर्म करे ।

 

वर्णाश्रम का जो कर्म मिला, वह कर्म विहित स्वाभाविक है,

उसका पालन करना स्वधर्म, उसमें ही निहित परमहित है।

ज्यों जल प्रवाह के साथ बहे, कर्मो का वैसा यदि पालन,

कर लेता मुक्ति प्राप्त मानव, जो भी हो उसका वर्णाश्रम ।

श्लोक  (४६)

जिस परमेश्वर ने सृष्टि रची, जिसने हम सबको जन्म दिया,

जो सबमें रहकर सबका है, जिसने हम पर उपकार किया ।

जब करता अपना कर्म मनुज, वह उसको ही तो पूज रहा,

संसिद्धि कर्म से पा जाता, अन्तर्यामी न अबूझ रहा ।

 

हर कर्म अर्चना ईश्वर की, कर कर्म पूजते हम उसको,

उसको जो घट-घट का वासी, परिव्याप्त किए जो अग-जग को।

उत्पन्न जगत-जीवन जिससे, जो किए हुए सबको धारण,

उसकी ही पूजा करते हम, कर्तव्य कर्म का कर पालन ।

 

पिछले जीवन के कर्म पार्थ, निश्चित करते अगला जीवन,

गुण क्षमता विकसित होती है, वैसी जैसा पिछला जीवन ।

होता स्वभाव यह जन्मजात, निर्धारित करता कर्मो को,

आत्मोन्नति करता है मनुष्य, पालन कर अपने धर्मो को । क्रमशः….