‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 248 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 248 वी कड़ी..                      अष्टादशोऽध्यायः- ‘मोक्ष सन्यास योग’
‘निष्कर्ष योग’ समस्त अध्यायों का सार संग्रह । मोक्ष के उपायभूत सांख्ययोग (सन्यास) कर्मयोग (त्याग) का अंग प्रत्यंगों सहित वर्णन ।

श्लोक  (४४)

कृषि, गौरक्षा एवं विपणन, वैश्यों के प्राकृत कर्म रहे,

तीनो वर्णों की परिचर्या, शूद्रों के कर्म सहज ठहरे ।

वे रजोगुणी अरु तमोगुणी, जैसा गुण वैसे कर्म करें,

उनकी जैसी भी प्रकृति रही, वे उसका ही अनुसरण करें ।

 

वैश्यों का है कर्तव्य प्रमुख, कृषि पशुपालन व्यापार कर्म,

सेवा का कार्य शूद्रों का, उनका स्वाभाविक रहा कर्म ।

यह प्रश्न नहीं सुविधाओं का, करता प्रदान अवसर समान,

प्रतिभानुकूल करके विकास, उद्देश्य सिद्ध करता महान ।

 

पूर्णत्व मनुजता का पाने, अवसर समान जन पाते हैं,

स्वाभाविक कर्म करें अपने, जीवन को सुखद बनाते हैं।

फल सदाचार का जीवन में, सौन्दर्य सत्य को पाना है,

वह धर्माचरण रहा उसका, जो कर्म उसे अपनाना है ।

 

क्षमता न समान सभी की है, पर सबका अपना अंशदान,

संगठित विविधता का स्वरुप, कर रही व्यवस्था यह प्रदान ।

क्षमतानुरुप सक्रियता का, यह सामाजिक आधार बने,

सबकी आहुतियाँ जहाँ पड़े, उस कर्म-यज्ञ को जगत करे।

 

सारा समाज है एक देह, ब्राह्मण उसका मस्तिष्क रहा,

क्षत्रिय है उसकी सबल भुला, ऊरु वैश्य रहा, पग शूद्र रहा।

चारों आवश्यक अंग रहे, मानव-समाज के अपरिहार्य,

कोई न किसी से कम ज्यादा, सब करते अपने विहित कार्य।

 

ब्राम्हण के पास ज्ञानबल है, क्षत्रिय है बड़ा बाहुबल से,

धनबल से वैश्य महान रहा, है शूद्र बड़ा श्रम, जन बल से ।

चारों ही सबल महान रहे, हर एक परम उपयोगी है,

ज्ञानी है कोई रक्षक है, साधक कोई सहयोगी है ।

 

बल स्वार्थसिद्धि को नहीं रहा, परमार्थ हितार्थ रहा सबके,

सहयोग परस्पर करने को, कोई न किसी को कम करके ।

कोई न ऊंच या नीच यहाँ, यह कर्मयोग सबको जोड़े,

सबका हो सके धर्मपालन, कोई न कर्म से मुँह मोड़े ।

 

यह शक्ति सन्तुलित रखता है, समता समभाव बढ़ाता है,

पूरे करता कर्तव्य मुदित, सबमें अपने को पाता है ।

ब्राम्हण का पद सबसे ऊंचा, इसलिए कि वह बढ़कर त्यागी,

वह ज्ञान व्यवस्था देता है, पर रहा न भोगी अनुरागी ।

 

सबका कल्याण करे लेकिन, बदले की चाह नहीं रखता,

जो मिला उसे भी त्याग चले, सादा जीवन यापन करता ।

क्षत्रिय करता सब पर शासन, दण्डित होता है अपराधी,

रक्षित रहते जन दुष्टों से, ज्यों धर्म धुरी उसने साधी ।

 

आवश्यकता की पूर्ति करे, व्यापार करे सत्याधारित,

संरक्षित रहे क्षत्रियों से, वाणिज्य वैष्य द्वारा धारित ।

जनबल, गतिबल, श्रमबल धारक, सहयोग शूद्र का रहा न कम,

वह भार देह का धारण कर, बनकर रहता गतिवान चरण ।

 

सब नहीं एक सा कर्म करें, सब सक्षम नहीं,काम्य उन्हें

इसमें न कहीं विद्वेष भेद, जो कर्म करें,वह धर्म उन्हें

यह सामंजस्य करे पैदा, जन सुखी कुशल बलवान बने

करुणा मैत्री सदभाव बढ़े, स्वाभाविक धर्माचार चले ।

 

रज मिश्रित तमोगुणी स्वभाव, सेवा में सहज प्रवृत्ति रखे,

होती न उसे कुछ कठिनाई, अनुकूल वृत्ति के कर्म करे ।

द्विज वर्णों की सेवा करके अपना कर्तव्य निभाता है,

चारों वर्णों का अंगों सम, तन से समता का नाता है। क्रमशः….