‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 243 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 243 वी कड़ी..                      अष्टादशोऽध्यायः- ‘मोक्ष सन्यास योग’
‘निष्कर्ष योग’ समस्त अध्यायों का सार संग्रह । मोक्ष के उपायभूत सांख्ययोग (सन्यास) कर्मयोग (त्याग) का अंग प्रत्यंगों सहित वर्णन ।

श्लोक  (३९)

निद्रा में जिसको सुख मिलता, जिसको लगते सुखकर सपने,

डूबा प्रमाद में रहता जो, प्रिय जिसे विकर्म रहे अपने ।

कर्तव्य विमुख वह हीन बुद्धि, सुख का पाले रहता है भ्रम,

निद्रा, आलस्य, प्रमाद जन्य, सुख तामस-सुख होता अर्जुन ।

 

प्रारंभ अन्त दोनों जिसके, भ्रम में आत्मा को डाल चले,

निद्रा से जो उत्पन्न हुआ, सुख जो मन में आलस्य भरे ।

जिसको पैदा करता प्रमाद, जो वृत्ति तामसी विकसाता,

वह रहा तामसी-सुख अर्जुन, जो सुख न रहा सुख कहलाता ।

 

मन और इन्द्रियों की हलचल, निद्रा के समय क्षीण होती,

विश्राम मिला करता उनको, सुख की प्रतीति उनको होती ।

सुख निद्रा जनित इसे कहते, यह नहीं देर तक रहता है,

जब तक निद्रा रहती, रहता, कितना कर्पूर ठहरता है।

 

मन और इन्द्रियों सहित मनुज, करता है विषयों का सेवन,

तब तक ही सुख अनुभव करता, जब तक चलता उसका सेवन ।

आसक्त उसे वह प्रिय लगता, सुख उसे अदेखा हीन लगे,

सुख भोगकाल का यह उसको, अमृत के जैसा मधुर लगे।

 

मन बुद्धि इन्द्रियाँ तमस ग्रस्त, हो जाती हैं अशक्त अर्जुन,

अनुभव न वस्तु का कर पातीं, हो जाता मोह ग्रसित चेतन ।

मोहित आत्मा होती उसकी, सुख भोग काल का छा जाता,

यह मोह, यही आसक्ति उसे, जड़ निम्न योनि में भटकाता ।

 

क्रियाओं का कर त्याग मनुज, बस निष्क्रिय होकर पड़ा रहे,

आराम प्रतीत करे इसमें, आलस्य जनित सुख भाव जगे ।

यह भोगकाल में मोहित कर, अज्ञान बढ़ाता जाता है,

गिरता जाता नीचे-नीचे गिरकर न मनुज उठ पाता है ।

 

आसक्ति ग्रसित जो कार्य वे व्यर्थ निरर्थक होते हैं,

रहते कर्तव्य उपेक्षित सब पर तुष्टि उसे वे देते हैं ।

श्रम से बचाव में सुख माने, उसका विवेक कुष्ठित होता,

आत्मा को मोहित करता जो, सुख रहा प्रमाद जनित उसका ।

 

अज्ञान और आसक्ति ग्रसित, वह झूठ, कपट हिंसा धारी,

कर्तव्य-कर्म से विमुख हुआ, बनकर रह जाता व्यभिचारी ।

वह नीच योनियों में जन्में, नरकों का वास मिले उसको, निद्रा,

निद्रा, प्रमाद, आलस्य, तमस करते नित रहें पतित उसको ।

 

वह पेय निषिद्ध उन्हें पीता, खाता पदार्थ जो भक्ष्य नहीं,

दुख देकर वह सुख पाता है, अपराधों से वह मुक्त नहीं ।

सर्वस्व लूटकर सुख पाता, सुख पाता वह विनाश करके,

तामस-सुख में सुख नहीं कहीं, इस सुखाभास को सुख कहते ।

 

सुख जीवन का उद्देश्य प्रमुख, पर गुण के कारण भिन्न रहे,

गुण जो स्वभाव में हो प्रधान, वैसे आचार-विचार रहे ।

हममें यदि ‘तमस’ प्रधान रहा, हम क्रूर बने, हिंसा करते,

सन्तुष्ट रहें त्रुटियों में ही, हम रहें जगत-काला करते ।

 

यदि हममे ‘रजस’ प्रधान रहा, सत्ता-सुख के लालायित हम,

धन बल में सुख अपना देखें, अभिमान भरे, यश साधक हम ।

त्यों ‘तमस’प्रधान हमारा मन, हर मार्ग पतन का अपनाता

आँखों का अंधा बना हुआ, अपना हित नहीं देख पाता ।

 

सच्चा सुख नहीं वस्तुओं में, वह रहा उन्नयन में मन के,

वह रहा पूर्णता पाने में, आशय पढ़ने में, जीवन के ।

अपने अन्तरतम का विकास, कर लेने, में, यह निहित रहा

सच्चा सुख उसने ही पाया, सुख पाने जिसने कष्ट सहा ।

 

संयम या कष्ट साधना से, कर पाते हम सत का विकास,

तम से बाहर आते श्रम से, पा जाते हैं दिन का प्रकाश ।

आनन्द मोक्ष तक की यात्रा, खुद चलकर पूरी करते हैं,

परिशुद्ध तत्व को पा जाते, आनन्द लोक में बसते हैं ।

 

आत्मा सर्वोच्च, मिलन उससे होता, प्राणी सब एक लगें,

सबके भीतर परमात्मा को, जो बसता है, प्रत्यक्ष लखें ।

यह सदाचार, यह आत्मबोध, देता है जो आनंद पार्थ,

इससे ऊपर उठकर शाश्वत, आनंद शांति का है प्रसाद । क्रमशः….