
श्लोक (३६)
सुख के भी तीन भेद होते, हे भरतर्षभ तू मुझसे सुन,
चर्बित को फिर फिर चबा रहा, सुख बद्ध जीव का ऐसा गुन ।
प्राकृत बन्धन से मुक्ति हेतु, जन विधि विधान पालन करता,
संसारी सुख भोगी को यह, आयोजन भला नहीं लगता
करता है साधक भजन ध्यान, सेवादि कृत्य में रमण करे,
जग-दुख से पाने छुटकारा, वह करे साधना यत्न करे ।
करके स्वरुप का वह दर्शन, जग-जीव आत्म सुख पाता है,
करता रहता अभ्यास सतत, दुख को वह दूर हटाता है ।
हो सके अन्त जिससे दुख का, सुख पाने का जो चाव रखे,
करना चाहे आनन्द प्राप्त, अपने सच्चे सुख में उतरे ।
उस सुख को पाने जीव पार्थ, रह सजग सतत अभ्यास करे,
वह सुख भी रहा विभाजित ही, उसके भी तीन प्रकार रहे।
श्लोक (३७)
सुख वह जिसका प्रारंभ कठिन, लगता पहिले जो विष जैसा,
पर अन्त सुखद जिसका अर्जुन, मीठा अमृत के फल जैसा ।
कर लेता आत्मरुप दर्शन, साधक अतीव सुख पाता है,
यह साधन करने से आता, यह सुख सात्विक कहलाता है।
यह लगता पहिले अप्रिय बहुत, कटु लगता, लगता दुखदाई,
पर शुद्ध सत्व जब मिल जाता, उसने तब निधि अनुपम पाई।
परिणाम मधुर अमृत जैसा, आनन्द अमित वह पा जाता,
यह सुख है उसका सात्विक सुख, पा इसको वह सब कुछ पाता।
सुख आत्म ज्ञान से मिलता जो, वह सुख ही सात्विक कहलाता,
यह प्राप्त साधना से होता, सात्विक साधक इसको पाता ।
प्रारंभ काल में विष जैसा, पर अंतिम फल अमृतवत है,
योगी, ज्ञानी साधें इसको, इससे बढ़ कर न अन्य सुख है।
इस सुख को अनुभव तब होता, जब भोग-सुखों को त्यागे मन,
परमात्म तत्व में बुद्धि लगे, हो सके दूर माया-विभ्रम ।
विषयों से विरति भाव जागे, इसको पाने अभ्यास चले,
दुख सभी छूट जाते उसके, जो ऐसे सुख में रमण करे ।
विषयों का करना पड़े त्याग, करना पड़ता संयम पालन,
वैराग्य विवेक तितिक्षा का, शम दम इन सबका परिपालन ।
ये कार्य कष्ट कर दुखदाई, बालक को ज्यों पढ़ना लिखना,
अंतिम क्षण ज्ञान प्राप्त होता, अनुपम सात्विक सुख का मिलना।
अभ्यास निरन्तर करने पर, होता है अन्तःकरण शुद्ध,
परमात्म बुद्धि का जो प्रसाद, कर जाता अन्तस को प्रबुद्ध ।
अनुभव सुख का करता साधक, सच्चा सुख यही कहाता है,
राजस, तामस सुख नाम रहे, उस सुख का अन्त न आता है।
गुणकारी औषधि का सेवन, आवश्यक स्वास्थ्य लाभ करने,
सात्विक सुख पाने साधक को, व्रत आवश्यक पालन करने।
लौकिक विषयों का त्याग कठिन, लेकिन वह करना ही होता,
रवि किरणों का जब परस मिले, तब ही रे सुख सरसिज खिलता।
साधक को ध्यान जनित सुख का, अनुभव होता अमृत समान,
साधन वे अब न कष्ट देते, लगते थे जो विष के समान ।
सांसारिक सुख लगते नगण्य, देखे वह अब विहान सुख का,
यह सात्विक-सुख उसका अर्जुन, जिसमें न रहा भय जग-दुख का । क्रमशः….