
श्लोक (३१)
जो बुद्धि न अंतर कर पाती, क्या धर्म, अधर्म रहा कैसा,
कर्तव्य रहा, क्या अकर्त्तव्य, क्या कार्य, अकार्य रहा कैसा ।
क्या योग-अयोग्य, उचित-अनुचित, इनका न भेद जो कर पाती,
वह बुद्धि राजसी कही गई, जो रहे मनुज को भटकाती ।
वह बुद्धि मनुज जिसके द्वारा परिभाषित सही नहीं करता,
क्या धर्म रहा, क्या है अधर्म, इनका वह गलत अर्थ करता ।
जो कार्यो को न सही समझे, क्या कार्य उचित क्या अनुचित है,
वह बुद्धि ‘राजसी’ रही पार्थ, जो सही नहीं, जो विचलित है।
जो धर्म-अधर्म नहीं समझे, जिसको सब कर्म समान रहे,
जो मर्म न समझे जीवन का, कर्तव्यों से जो विमुख रहे ।
वह वास्तविकता से रहे दूर, हो नहीं सही जिसकी व्याख्या,
वह बुद्धि ‘राजसिक’ रही पार्थ, विक्षिप्त उसे समझा जाता ।
है धर्म सत्य अरु शांति दया, है धर्म अहिंसा का पालन,
शम, दम, तप, दान, ब्रह्मचर्य, है अर्जन यजन, वेद-अध्ययन ।
इनसे परलोक लोक सुधरे, सुख भोग मिले यह विदित रहा,
पर राजस बुद्धि रही जिसकी, उसने यह धर्म नहीं समझा।
छल कपट झूठ चोरी हिंसा, व्यभिचार, दम्भ अरु पाप कर्म,
निर्णय करने में कुण्ठित मति, समझे न कृत्य ये हैं अधर्म ।
संशय से युक्त बुद्धि ऐसी, है राजस बुद्धि, अकार्य करे,
वह अस्थिर चलित रहा करती, सोया उसका न विवेक जगे।
यह बुद्धि राजसी दुखकारक, संचय केवल भय का करती,
इससे छुटकारा पाने को, साधक की साध सतत चलती ।
सत्पुरुषों का सत्संग करे, सदग्रन्थों का करता अध्ययन,
राजस भावों का त्याग करे, सात्विक भावों का कर धारण । क्रमशः….