
श्लोक (२८)
कुछ कर्म निषिद्ध रहे उनको, करने जो जन आगे बढ़ता,
वह कर्त्ता ‘तामस’कहा गया, जो शास्त्र विरुद्ध कर्म करता ।
वह विषयी, हठी, प्रपंची, ठग, कपटी सबका अपमान करे,
आलसी प्रमादी विकल चित्त, उसका हर कार्य अपूर्ण रहे ।
जो कर्त्ता नहीं संतुलित हो, जो हठी, असंस्कृत, हो द्वेषी,
जो धोखेबाज आलसी हो, जो टालमटोलू रहे दुखी ।
वह रहा तामसी हे अर्जुन, वह जो भी करे अनर्थ करे,
उसका चिन्तन, उसकी करनी, उसके जीवन में धुआँ भरे ।
शिक्षा से रहित, घमण्डी जो, अति धूर्त अयुक्त दीर्घ सूत्री,
कर लेता हरण जीविका का, बनकर जो रहे कपट मूर्ती ।
जिसमें आलस्य प्रमाद भरा, देता रहता जग को धोखा,
वह ‘तामस-कर्त्ता” रहा पार्थ, उसका हर कर्म रहा थोथा ।
वह शिथिल प्रकृति का होता है, उत्साह नहीं रखता मन में,
अवगुण जो रहे तमोगुण के, वे उभरें कार्मिक जीवन में ।
तामस-कर्त्ता का अधःपतन, निश्चित होना ही होना है,
कुछ हाथ नहीं उसके आता, उसको खोना ही खोना है।
रहता प्रवृत्त उन कामों में, जिनसे हो अहित दूसरों का,
यह समझ नहीं उसको रहती, अपना वह स्वयं अहित करता।
उसका उसकी क्रियाओं का, आपस में रहे न तालमेल,
वह मति विमूढ़ बालक जैसा, करता कर्मो के साथ खेल ।
विष जैसी उसकी मनोवृत्ति, चोरों जैसा आचार रहे,
आश्रय ज्यों रहा लुटेरों का, अवसर पाकर वह घात करे ।
वह नहीं भलाई देख सके, पीड़ा उसको होने लगती,
यदि गौरव कोई पाता है, उसके मन में ईर्ष्या जगती ।
वह निंदा करने लगता है, गुणगान किसी का सुनने पर,
उसका जिसमें हो भला निहित, खोता उसको प्रमाद में पड़ ।
ग्रस लेता है आलस्य उसे, कल्याण-द्वार जब खुलता है
वह पापराशि बनकर जीता, उसको न मार्ग शुभ मिलता है।
लक्षण जो रहे तमोगुण के, वे पूरे या आंशिक घटते,
होते वे कर्ता तमोगुणी, वे नीच योनियों में पड़ते ।
पशु पक्षी कीट पतंग बनें, उद्धार न उनका हो पाए,
यह ध्यान रखे अर्जुन कर्ता, वह नहीं तामसी बन जाए । क्रमशः….