‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 219..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 219 वी कड़ी ….                      अष्टादशोऽध्यायः- ‘मोक्ष सन्यास योग’

अध्याय अठारह – ‘निष्कर्ष योग’ समस्त अध्यायों का सार संग्रह । मोक्ष के उपायभूत सांख्ययोग (सन्यास) कर्मयोग (त्याग) का अंग प्रत्यंगों सहित वर्णन ।

श्लोक  (५)

तप, दान यज्ञवत कर्मो का होता है त्याग न उचित कभी,

इनका पालन कर्तव्य रहा, कर्तव्य त्याग क्या उचित कभी?

तप, दान, यज्ञ वे कर्म रहे, परमार्थ मार्ग इनसे खुलता,

जो पुरुष मनीषी उनका मन, इन कर्मो से निर्मल बनता

 

यात्री जिसको पथ तय करना, बढ़ने से नहीं कदम रोके,

जब तक न किनारे तक पहुंचे, नौका को नहीं पथिक छोड़े।

तप दान यज्ञ आवश्यक है, करते अशुद्धि का ये शोधन,

उसको भी मुक्ति मिला करती जो करता कर्मों का पालन ।

 

रोगी जितना नियमित रहता, औषधि का करता है सेवन,

वह स्वास्थ्य लाभ करता सशीघ्र, चंगा हो जाता उसका तन ।

निष्ठा पूर्वक जो कर्म करे, वह सत्वशुद्धि पा जाता है,

हो जाता अन्तःकरण शुद्ध, वह शुद्धचित्त हो जाता है।

श्लोक   (६)

यज्ञादिक कर्मो को अर्जुन, आसक्ति रहित सम्पन्न करें,

समझें कर्तव्य उसे अपना, मन में फल की इच्छा न रखें ।

सात्विक कर्मो को करने से, मन में बढ़ती है सात्विकता,

होता है अंतःकरण शुद्ध, जीवात्मा आत्मोन्नति करता ।

 

पीपल को पानी देते जो, मन में न रखें फल की इच्छा,

इच्छा न दूध की करता है, ग्वाला जो गायों को दुहता ।

ऐसा ही भाव रखे मन में, कर्ता जब अपने कर्म करे,

फल की इच्छा न रखे मन में, कर्तव्य समझ कर्मरत रहे ।

 

निश्चित यह मेरा मत अर्जुन, यह ही मेरा निर्णय अंतिम,

आसक्ति न हो, न फलेच्छा हो, कर्मो का हो बस सहज वहन ।

कर्मो का त्याग न उचित रहा, है मुक्ति कर्म का विषय नहीं,

यह अकर्तृत्व का भाव रहा, यह जागृत अन्तदृष्टि रही

 

बंधक कारक है नहीं कर्म, बंधक कारक ममता होती,

बंधनकारक आसक्ति रही, इच्छाफल की बंधक होती ।

इनका न त्याग जब तक होता, वह त्याग नहीं सच्चा अर्जुन,

आसक्ति फलेच्छा को तजकर, पाता है त्याग पथिक अर्जुन । क्रमशः….