रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।अध्याय अठारह – ‘निष्कर्ष योग’ समस्त अध्यायों का सार संग्रह । मोक्ष के उपायभूत सांख्ययोग (सन्यास) कर्मयोग (त्याग) का अंग प्रत्यंगों सहित वर्णन ।
श्लोक (३)
विद्वानों का है वर्ग एक, जो कहता जितने कर्म रहे,
वे सभी दोषमय होते हैं, इसलिए ‘त्याग’के योग्य रहे ।
लेकिन है वर्ग दूसरा जो, कहता कुछ कर्म के रहे ऐसे,
जिनका कि त्यागना उचित नहीं, तप दान यज्ञ होते जैसे ।
ऐसा भी मत विद्वानों का, सब कर्म दोषमय होते हैं,
वे सभी त्यागने योग्य रहे, सन्यास ग्रहण को कहते हैं।
लेकिन विद्वान दूसरे जो, करते अनुमोदन कर्मो का,
जैसे तप दान यज्ञ वत जो, हितकारी है पालन इनका
मत रहा मनीषियों का ऐसा, जो काम्य कर्म त्यागे जावें,
सन्यास इसे वे कहते हैं, इसको मुमुक्षु जन अपनायें ।
पर कर्म नहीं कर्मो का फल, त्यागा जाए, कुछ यह कहते,
आसक्ति रहित जो कर्म करें, वे ही सच्चे त्यागी रहते ।
कुछ रहीं वस्तुएँ त्याग योग्य, जो नित्य रहीं वे धारणीय,
है विष का सेवन उचित नहीं, तजना अमृत है निंदनीय ।
हो त्याग न नित्य नैमितिक का, परफल की नहीं प्रवृत्ति रहे,
यह रहा त्याग का मूलभाव, त्यागी, सन्यासी यह समझे ।
श्लोक (४)
मतभेद त्याग संबंधी ये, यद्यपि विद्वानों बीच रहा,
नरशार्दूल मेरा निश्चय बतलाता हूँ किस तरह रहा ।
ज्यों तीन प्रकृति के गुण अर्जुन, इसके भी तीन प्रकार रहे,
सब कर्म त्यागने योग्य नहीं, यह बात प्रमाणित शास्त्र करे ।
सात्विक होता, राजस होता, तामस होता है त्याग पार्थ,
यह रहा शास्त्र सम्मत मत, इसका ही करना मुझको विकास ।
फल त्याग रही पहिली सीढ़ी, आत्मा कर्ता, फिर यह तजना,
सब कर्मो का कर्ता है प्रभु, अनुभव यह है ऊपर चढ़ना । क्रमशः….