‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 217..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 217 वी कड़ी ….                      अष्टादशोऽध्यायः- ‘मोक्ष सन्यास योग’

अध्याय अठारह – ‘निष्कर्ष योग’ समस्त अध्यायों का सार संग्रह । मोक्ष के उपायभूत सांख्ययोग (सन्यास) कर्मयोग (त्याग) का अंग प्रत्यंगों सहित वर्णन ।

श्लोक  (२)

श्री भगवानुवाचः-

भगवान कृष्ण बोले अर्जुन, ज्ञानी जन ऐसा बतलाते,

सब कर्मो के फल को तजना, है ‘त्याग’, उसे वे समझाते ।

विद्वानों द्वारा ‘त्याग’यही, ‘सन्यास’कहा जाता अर्जुन

इन तत्वों के ही बारे में, बतलाता हूँ, अब उसको सुन ।

 

अर्जुन से कहते वासुदेव, पण्डित जन ऐसा समझाते,

जो काम्य कर्म उनको तजना, ‘सन्यास’उसे वे बतलाते ।

बतलाते पुरुष विचार कुशल, कर्मो के फल का ‘त्याग’करो,

उसको वे सच्चा ‘त्याग: कहें, इस तरह भेद इनका समझो ।

 

‘सन्यास’ कर्म का त्याग नहीं, वह ‘त्याग: कर्म के फल का है,

इसको सच्चा ‘सन्यास’कहो, यह त्याग मुक्ति का दाता है।

सन्तान न मुक्ति दिलाती है, वह नहीं द्रव्य द्वारा मिलती,

होती न कर्म से प्राप्त मुक्ति, वह फलोत्याग द्वारा मिलती

 

मुक्तात्मा मुक्ति प्राप्त करके, सेवा में भी रत रह सकता,

अज्ञान करे उत्पन्न कर्म, इस मत का वह विरोध करता ।

होता है ज्ञान उदित जिस क्षण, मिट जाता कर्म मिटे ज्यों तम,

वह नहीं मानता कर्म निरत है मुक्त नहीं, उस पर बन्धन ।

 

जो बुद्धिमान वे कहते हैं, सन्यास, त्याग उन कर्मो का,

जो इच्छा द्वारा प्रेरित हैं, जिनसे हो राग जुड़ा मन का ।

विद्वान कर्म-फल-त्याग उसे, ही नाम त्याग का देते हैं,

जड़ता अथवा निष्क्रियता को, वे नहीं कोटि में लेते हैं।

 

आदर्श रुप वह काम रहा, जो बिना स्वार्थ की इच्छा के,

जो बिना लाभ की आशा के, जो विगत भाव कत्र्तापन के।

इस तरह किया जाता जिसमें, उस आत्मा के प्रति अर्पित मन,

जो सार्वभौम चेतनता है, जो सार्वभौम धारे जीवन ।

 

गुरु कहता है सब कर्म करो, पर इच्छा रहित करो उनको,

‘सन्यास’ इसी को कहते हैं, निष्काम कर्म कहते जिसको ।

यह कर्मयोगियों पर लागू, ज्ञानी कर्मो का त्याग करे,

कुछ कहते ज्ञान, कर्म दोनों, का नहीं साथ व्यवहार सधे ।

 

‘सन्यास’ कहो या त्याग कहो, निर्देश ‘त्याग’का होता है,

पर निहित अर्थ में अन्तर है, किसको यह त्याग संजोता है ?

क्या मूल कर्म का त्याग हुआ, या हुआ त्याग उसके फल का ?

वह कर्म कौन जो त्याज्य रहा, कर्म त्याज्य फल हो जिसका ?

 

जंगल में व्यर्थ वनस्पतियाँ, ऊगें, होती उत्पन्न घास,

इनको पैदा करने कोई, रे नहीं किया जाता प्रयास ।

पर बाग लगाया जाता है, अरु धान उगाई जाती है,

मिलता है तब कूपों से जल, जब भूमि खनाई जाती है।

 

कुछ नैमित्तिक हैं नित्य कर्म, जिनका करना पड़ता पालन,

उनके पालन में दोष नहीं, बतलाते आवश्यक आगम ।

पर काम्य-कर्म ऐसे न हुए, जिनमें न फलेच्छा रहती हो,

जल के भीतर मगरी जैसी, जो नहीं पैर को गहती हो ।

 

जितने भी कर्म सकाम रहे, करते हैं जो इच्छा पूरी,

बन्धन कारक हैं कर्ता को, वे बढ़ा चलें प्रभु से दूरी ।

उनका फल-भोग सुनिश्चित है, अनजाने भी यदि सम्पादन,

वह अपना फल देकर रहता, कर्त्ता पर पड़ता है बन्धन । क्रमशः….