‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 81 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 81 वी कड़ी ..

 

सप्तमोऽध्याय – ‘ज्ञान-विज्ञान योग’

श्लोक  (१६)

इन पापात्माओं से हटकर, पुण्यात्मा भी होते अर्जुन,

जो करते हैं मेरी सेवा, मुझसे जो जोड़े रखते मन ।

वे आर्त ग्रस्त जो विपदा से अर्थार्थी, धन के अभिलाषी,

जिज्ञासु,पिपासु ज्ञान के जो, ज्ञानी कि तत्त्व के अन्वेषी ।

 

श्रद्धा से जो भजते मुझको, वे भक्त सुकृत होते अर्जुन,

जिनका स्वभाव है सुधर गया, शुभ दिशा पकड़कर जनम जनम ।

विश्वास सुदृढ़ हो जाता है, ईश्वर में,मन की शुचिता से,

होते कृतकृत्य भक्त मेरे, जो श्रद्धा सहित मुझे भजते ।

 

धन, दारा, पुत्र, कलत्र, मान, स्वर्गादिक सुख की चाह करे,

पर पूर्ति कामना की करने निर्भर, मुझपर ही पूर्ण रहे ।

उस अर्थार्थी की अभिलाषा, को पूर्ण करूँ यह व्रत मेरा,

सम्बल मैं एक मात्र जिसका, जिसने भी आशा से हेरा ।

 

जो ब्याधि, रोग, दुख, दुश्मन से, भयग्रस्त रहें या रहें दुखी,

पर मुक्ति हेतु हो भक्ति भावना, जिसकी मुझमें एकमुखी ।

वे आर्त भक्त उनकी पुकार, सुनकर में उनकी मदद करूँ,

उनका भय दूर करूँ जाकर, उनकी बाधा तत्काल हरूँ ।

 

घर-द्वार, वार सुख-वैभव में, जिनको न शान्ति के हो दर्शन,

‘है परम तत्व क्या’? यही भाव, जिनके मन में जाग्रत हरदम ।

जिज्ञासु भक्त वे एकनिष्ठ, कल्याण कामना को धारे,

उद्घाटित करने आत्मतत्त्व, मैं जाता हूँ उनके द्वारे ।

 

कर चुके प्राप्त परमात्मा को, परमात्मा में ही रमे, रूपे,

निःशेष कामनायें जिनकी, जिनके सारे कर्तव्य चुके ।

वे ज्ञानी भक्त रहे अर्जुन, उनका मुझसे तादात्म रहा,

उनके जो कार्य-कलाप रहे, उनसे मेरा ही स्वर उभरा ।

श्लोक  (१७)

भजते सकाम मुझको, जो जन, वे विषयासक्ति दोष तजकर,

कालान्तर में बनते ज्ञानी, निस्पृह रहकर मुझसे जुड़कर ।

इन सब में भक्ति योग द्वारा, जो ज्ञानी मुझसे युक्त श्रेष्ठ,

मैं प्रिय उसका, वह मुझको प्रिय, चारों में ज्ञानी सर्वश्रेष्ठ ।

 

बह अविरल मुझसे प्रेम करे, वह हेतुरहित मुझको भजता,

विस्तृत जग-जीवन से,तन से, होकर अनन्य मुझमें बसता ।

अत्यन्त रहा प्रिय ज्ञानी को, वह ज्ञानी मुझे बहुत प्यारा,

दोनों कूलों को, एक बना देती है,उमड़ प्रेम धारा ।

 

हट जाता भेदाभेद, तिमिर हो जाता एकाकार पार्थ,

स्फटिक नीर का बन जाता, वह अपनी निर्मल भक्ति साथ।

हो जाता है जब शान्त गगन, उसमें न हवापन दिखता है,

मुझमें खो जाता भक्त मगर, निज भक्ति भाव वह रखता है।

 

तदरूप स्वानुभव में रहता, आत्मा में उसके वास करूँ,

बह अपने कार्य कलाप करे, मैं साथ साथ उसके विचरूँ ।

बह देहधर्म निर्वाह करे, होता न विखंण्डित भक्ति भाव,

उसका मुझसे गहरा लगाव,मेरा उससे गहरा लगाव ।

 

साधक अथवा जिज्ञासु रहे, तब तक चलता है द्वैत साथ,

पर ज्ञान प्राप्त जिस क्षण होता, यह द्वैत भाव होता समाप्त ।

एकात्मा से संयुक्त हुआ, योगी जुड़ जाता अगजग से,

वह कुछ भी करता नहीं, स्वयं के लिए कर्म अपने कर के । क्रमशः…