‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक ..51

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 51 वी कड़ी ..

                                          चतुर्थोऽध्यायः – ज्ञान योग

            दिव्य ज्ञान का योग, ज्ञान-कर्म-सन्यास योग “याने ज्ञान और कर्म के सच्चे -त्याग का योग 

श्लोक (३३)

भौतिक पदार्थ से किए गये, सम्पन्न यज्ञ होते कमतर,

अत्यन्त श्रेष्ठ है ज्ञान-यज्ञ, यज्ञों में वह सबसे ऊपर ।

वह ज्ञान रहा, सम्पूर्ण कर्म होते समाप्त जिसमें जाकर,

वह ज्ञान, स्वतन्त्र, मुक्त होकर विचरे ज्ञानी जिसको पाकर ।

श्लोक  (३४)

वह ज्ञान तत्वदर्शी ज्ञानी से, होता प्राप्त सुनो, अर्जुन,

सविनय आदर के सहित, गुरु से पाते उसको सेवक जन ।

गुरु से अपनी जिज्ञासा का,पाता वह तात्विक समाधान

परमात्मा का अनुभव जिनको, वे ही दे पाते तत्व-ज्ञान ।

 

तू तत्व-ज्ञानियों के समीप जाकर वह ज्ञान सीख अर्जुन,

श्रद्धा मन में लेकर गहरी, जाकर कर तू उनका वन्दन ।

निष्कपट भाव से सरल चित्त, जाकर तू उनकी सेवा कर,

पा जिज्ञासा का समाधान तू,परम-ज्ञान को अर्जित कर ।

 

परमात्म तत्त्व का भली भाँति उपदेश करेंगे वे तुझको,

श्रद्धा से होगा ज्ञान प्राप्त, नूतन अनुभव होगा तुझको

श्लोक  (३५)

इस तरह रहेगा नहीं मोह से ग्रसित, ज्ञान को पाकर तू,

हे पाण्डव अपने भीतर भूत-जगत निःशेष लखेगा तू ।

सब सत्ताओं को अपने में, फिर मेरे भीतर देखेगा,

जब भेदबुद्धि मिट जायेगी, तू मुक्त स्वयं को लेखेगा ।

 

आत्मा परमात्मा दोनों के, तुझको हो जायेंगे दर्शन,

सत चित आनन्द रूप होता, होता है जो ज्ञानी अर्जुन ।

श्लोक  (३६)

चाहे तू सभी पापियों से भी हो बढ़कर पापी अर्जुन,

पर ज्ञान-नाव के द्वारा तू कर लेगा पाप-समुद्र तरण ।

यह नहीं काठ की नौका, जो क्षतिग्रस्त कहीं हो सकती है,

यह रही ज्ञान की नौका, अक्षय, सतत सन्तरण करती है।

श्लोक  (३७)

हे अर्जुन अग्नि जगे जब, तो ईधन को राख बना देती,

वैसे ही आग ज्ञान की जग, कर्मों को जला भस्म करती ।

जब कर्म नष्ट हो गये, कर्म के, क्या विकार रहने पाये?

संचित, प्रारब्ध न कुछ बचता, उनका सारा फल जल जाये ।

श्लोक  (३८)

पृथ्वी पर ज्ञान समान पवित्र, न वस्तु दूसरी है कोई,

जो व्यक्ति योग को सिद्ध करे, पूर्णत्व प्राप्त करता वह ही।

आत्म संयमी व्यक्ति ज्ञान की, ज्योति जगा लेता है मन में,

कालान्तर से चली आ रही, यही साधना, जग-जीवन में ।

 

चैतन्य अन्यतम है जैसे, वैसे ही है यह ज्ञान पार्थ,

इसके समान पृथ्वी पर पावन, वस्तु न कोई रही पार्थ ।

यदि बने कसौटी सूर्य तेज, या नभ बाहों में सिमट सके,

या पृथ्वी का सा भार मिले, तब भी न ज्ञान का अंश तुले ।

श्लोक  (३९)

श्रद्धावान ज्ञान को पाता, श्रद्धा तत्परता को लाती,

इन्द्रिय संयम रहे, साधना सतत कार्य की सिद्धि कराती ।

पा जाता है ज्ञान मनुज, जो पाने उसे साधना करता,

साथ ज्ञान के साधक, प्रभु को पाकर परम शान्ति को वरता ।

श्लोक  (४०)

श्रद्धा रहित, विवेकहीन, जन, संशय युक्त भटकता रहता,

उस मनुष्य को शान्ति न मिलती, सच्चे सुख का ज्ञान न मिलता।

संशय के रहते न जागती श्रद्धा, नहीं विवेक जागता

लोक और परलोक बिगड़ते, जीवन उसका नहीं संवरता ।

 

संशय से बढ़कर न दूसरा रहा पतन का कारण अर्जुन,

कर्मों को सन्यस्त किए योगीजन करें कर्म को धारण ।

श्लोक  (४१)

सुनो धनन्जय, कर्मयोग का विधिवत करते जो जन पालन,

सारे कर्मों को कर देते हैं, जो परमात्मा को अर्पण ।

जो विवेक से अपने सारे, संशय पूर्ण नष्ट करते हैं

अन्तःकरण विमल रखते जो, उन्हें न कर्म बन्धन बनते हैं।

श्लोक  (४२)

अतएव भरतवंशी अर्जुन, मन में न तनिक भी संशय ला,

अज्ञान जनित संशय उर मैं, बसता है, उसको दूर हटा ।

तू ज्ञान रूप तलवार पकड़, बढ़कर कर दे उसका छेदन,

कर युद्ध समत्व बुद्धि लेकर, अर्जुन, कर कर्मयोग धारण ।

।卐 । -इति -ज्ञान योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ।卐 ।