श्रमिकों, मजलूमों की आवाज थे डी के प्रजापति ..

डी के भाई की प्रथम पुण्यतिथी पर श्रद्धांजलि ….

डी के प्रजापति एक साल पहले हम सबको छोड़कर चले गए, लेकिन उनके द्वारा किए गए काम हमेशा याद रहेंगे , वे वकील थे , पत्रकार थे। इससे भी आगे वे एक बेहतरीन श्रमिक नेता थे , जिन्हें अक्सर श्रमिकों के बीच देखा जाता था। जहां श्रमिकों की बात होती थी, वहां उनकी मौजूदगी रहती थी। कोयला खदानों के मजदूरों से लेकर कारखानों के श्रमिकों के बीच उनकी गहरी पैठ थी । श्रम कानूनों के अच्छे जानकार होने के कारण उन्हें अक्सर श्रमिकों को कानूनी बारीकियों की जानकारियां देते हुए देखा जाता था। मोदी सरकार द्वारा 40 से अधिक श्रम कानूनों को खत्म करने की प्रक्रिया शुरू की गई, तब उन्होंने पत्रकार की हैसियत से अपने अखबार में श्रम कानूनों के खत्म किए जाने का श्रमिकों के ऊपर होने वाले प्रभाव को विस्तार से लिखा जो आज प्रासंगिक है ..

श्रमिकों के पास आज जो 8 घंटे काम का अधिकार, न्यूनतम वेतन, बोनस एवं कार्यस्थलों पर दूसरी अन्य सुविधाएं, यह सब श्रमिकों को उनके संघर्षों से ही हासिल हुआ है। श्रमिकों को जिंदा रहने के लिए दो वक्त का खाना देकर उनसे 18-20 घंटे काम कराया जाता था, वे कार्यस्थलों पर बने दड़वों में ही सो जाया करते थे, उन्हें घर जाकर परिवार के साथ समय गुजारने तक का अधिकार नहीं था, इस स्थिति में ही भारत सहित दुनिया में मजदूरों का 8 घंटे काम के अधिकार का आंदोलन शुरू हुआ,

 

भारत में 4 मई 1886 को मजदूर संघों ने आंदोलन किया। 1914 को फोर्ड मोटर कंपनी ने 8 घंटे काम का नियम बनाया। 25 सितंबर 1926 को इसी कंपनी ने हफ्ते में काम के दिन को भी घटाकर पांच दिन कर दिया, यह सब इसीलिए हुआ कि स्वाधीनता आंदोलन में मजदूरों की बढ़ती हिस्सेदारी ने अंग्रेजी हुकूमत को हिलाकर रख दिया था। अंग्रेजों को लगने लगा था कि अब श्रमिकों के साथ किए जाने वाले अन्याय को जारी नहीं रखा जा सकता क्योंकि श्रमिकों की आंदोलनों में बढ़ती हिस्सेदारी का मतलब है सबकुछ रुक जाना।

समाजवादी विचारधारा से प्रभावित डी के प्रजापति देश के जाने-माने समाजवादी नेताओं के निरंतर संपर्क में रहते थे, यहीं से उन्होंने श्रमिकों, मजलूमों की आवाज बनने की शिक्षा ली, ताउम्र वे इस पर ही चलते रहे। उन्हें जब भी, जहां भी मौका मिलता था वे देश-दुनिया के श्रमिकों की दिशा-दशा पर अपनी बात रखते हुए ऐसी-ऐसी जानकारियां दे जाते थे, जिनकी जानकारियां कम ही लोगों के पास होती थी। डी के प्रजापति से मेरी पहली मुलाकात 2004 के लोकसभा चुनावों के दौरान हुई थी, तभी पहली बार कोयला खदान की गेट मीटिंग में मैंने उनका भाषण सुना।

18 साल पहले डी के प्रजापति कोयला खदानों के मजदूरों को भाजपा को हराने का महत्व समझाते हुए बता रहे थे कि यदि केंद्र में पुन: भाजपा की सरकार बनी तो श्रमिकों को सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ेगा, उन्हें अपने श्रम कानून तक गंवाने पड़ेंगे, जिसकी शुरूआत भाजपा की अटल बिहारी सरकार ने कर्मचारियों से पेंशन जैसी सामाजिक सुरक्षा छीनकर कर दी है। बंपर बहुतम के साथ केंद्र की सत्ता में पहुंची भाजपा की मोदी सरकार ने पहले जो काम किए, वे दोनों ही मजदूर, कर्मचारी विरोधी थे।

डी के प्रजापति श्रमिकों से सिर्फ आर्थिक मुद्दों पर ही संवाद नहीं करते थे बल्कि उनकी राजनीतिक समझ को विकसित करने का काम भी करते थे। 2004 में भाजपा हराओ अभियान के दौरान डी के प्रजापति श्रमिकों के बीच अधिक सक्रिय रहे क्योंकि वे जानते थे कि भाजपा की सत्ता में वापसी का मतलब है कामगारों की बदहाली। 2004 में कामगारों की ओर से चलाए गए भाजपा हराओ अभियान को श्रमिकों का व्यापक समर्थन मिला और श्रमिक कर्मचारी विरोधी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा।

अब मोदीजी ने बड़ी क्रूरता एवं बेरहमी से अटलजी की श्रमिक, कर्मचारीविरोधी नीतियों को आगे बढ़ाते हुए कामगारों की स्थिति डिस्पोजल वस्तु जैसी कर दी है, उससे 8 घंटे काम, साप्ताहिक अवकाश, न्यूनतम वेतन, सामाजिक सुरक्षा जैसे अधिकार पूरी तरह छीन लिए गए हैं, इसका सबसे अधिक बुरा असर आउटसोर्स, ठेका, अस्थाई कामगारों पर पड़ रहा है, जिनसे 12-14 घंटे काम कराया जाता है, बदले में 5-6 हजार रुपए तक वेतन नहीं दिया जाता, इस वेतन को भुखमरी वाला वेतन ही कह सकते हैं यानि मोदी सरकार ने कामगारों को भुखमरी की स्थिति में पहुंचाने का पूरा इंतजाम कर दिया।

डी के प्रजापति ने कभी राजनीतिक नेता बनने की कोशिश नहीं की, भले ही उन्होंने अनेक नेताओं को गढ़ा , पर स्वयं नेता बनने की चाहत भी उन्होंने कभी नहीं पाली। वे खुद को श्रमिकों का प्रतिनिधि, श्रमिकों का पत्रकार एवं श्रमिकों का वकील कहलाना ही पसंद करते थे। श्रमिकों की बात करने वाले बहुत कम है, उनमें डी के प्रजापति भी एक थे। श्रमिकों का प्रतिनिधि बनना बहुत मुश्किल है क्योंकि श्रमिकों के लिए काम करने के लिए खपना पड़ता है, खुद को श्रमिक की तरह ढालना पड़ता है जो हर किसी के लिए कर पाना संभव नहीं है।

आज लोग राजनीति में पहचान बनाने के लिए शार्टकट की तलाश में रहते हैं। जब दो-चार सफेद, रंग विरंगे कुर्ते पाजामे, विधायक, मंत्री के साथ दो-चार फोटू, पांच-सात होर्डिंग्स लगाकर नेता बना जा सकता है, तब श्रमिकों, मजलूमों के लिए सर खपाने की क्या जरूरत है। आज न कोई श्रमिक संवाददाता बनना चाहता है। न कोई श्रमिक कार्यकर्ता बनना चाहता है। न कोई श्रमिक वकील बनना चाहता है, डी के प्रजापति यही सब कुछ बनाने की कोशिश करते हुए हम सभी को छोड़कर चले गए ?                                                                                                       वासुदेव शर्मा ,वरिष्ठ पत्रकार